जितने भी शरीरधारी हैं, उनको प्राणी कहते हैं। प्राणी का अर्थ है- जिसके अंदर जान होती है, जिसके अंदर प्राण होता है। जिन्दगी तो किसी भी रूप में हो सकती है और जिन्दगी के लिए लोग कुछ भी करते हैं। चौरासी लाख तरह के प्राणी होते हैं, सब अपनी तरह से जीते हैं। जिन्दगी के लिए जो करना है, उसमें सोचने की जरूरत नहीं है। जैसे पानी का थ्सवू ;बहावद्ध अपने आप नीचे की तरफ होता है। पानी को कोई कुछ भी करे लेकिन वो नीचे को ही चलेगा। कोई कहे कि मैंने पानी को नीचे की गति दी है, तो कहोगे कि पानी का तो स्वभाव है, कि वह नीचे की तरफ जाएगा। ऐसे ही कोई कहे कि मैंने जिन्दगी के लिए ऐसा किया-वैसा किया, तो ये तुमने कुछ नहीं किया। ये तो होना ही था। छोटे-छोटे कीड़े-मकौडे से लेकर बडे+-बड़े विद्वान तक कैसे जीते हैं? कैसे खाते हैं? कैसे पीते हैं। उसमें कोई खास अहमियत की बात नहीं होती। उसमें तुम कहीं नहीं हो ये तुम क्या खाते हो, क्या पीते हो, क्या पहनते हो। ये कोई महत्व की चीज नहीं है। ये सारी भोग की चीजें हैं। इसमें दिमांग लगाने की कोई जरूरत ही नहीं है। ये अपने आप होता है।
Wednesday, September 15, 2010
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1 comment:
मैंने ही ऐसा अनुभव किया है। हमारे जीवन की गाड़ी के लिए ईश्वर में एक रेल की पटरी बिछा दी है। हम अपने अच्छे और बुरे कर्मों के द्वारा उसकी गति में परिवर्तन अवश्यक कर सकते हैं। किन्तु न तो मार्ग में परिवर्तन कर सकते हैं और न ही गंतव्य में।
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