संसार में सबसे बड़ा कर्म संयम ही है- वरना एक कूकर, सूकर गर्दभ और मनुष्य जीवन में फिर भेद ही क्या है। क्योंकि कर्म तो पशु, पक्षी सभी करते हैं फिर भी उनको कर्मयोनि नहीं वरन् केवल भोग योनि ही कहते हैं। इनमें कर्म के साथ संयम नहीं है। अगर इनमें कर्म के साथ मन, वचन और कर्मयुक्त संयम हो तो वे विचारशील हो सकते हैं। विचार केवल संयम से ही आता है। विवेक, ज्ञान प्रज्ञा ऋतम्भरा, बुद्धिधृति, धम्र, कर्म सभी संयम की धरती पर ही फलित सुवासित प्रसूनों की बगिया लहलहाती है। मन, वचन और कर्म में गुरू शास्त्र परिस्थितियों द्वारा उपलक्षित रास्ते पर चलने से ही पूर्ण बुद्धित्व,जैनत्व, आर्यत्व की प्राप्ति संभव है। यहाँ किसी भी मत, पंथ, सम्प्रदाय का कोई भी भेद नहीं है। संयमियों ने ही कुरान-शरीफ, जेन्दावस्ता, गुरुग्रन्थ साहिव, बाईविल, त्रिपिटक आदि की रचना की है असंयमी तो निरा ढोर ही है इन्सान नहीं। इसीलिए कहते हैं-
हिन्दू चाहिए न मुसलमान चाहिए
धरती के अम्नो चैन को इन्सान चाहिए।'
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