जब भक्त को भगवान में और साधक को गुरु में पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास हो जाता है तब वह उनकी सर्वसमर्थ शक्ति के समक्ष तन, मन, धन, प्राण सर्वस्व समर्पित कर देता है। समर्पव वह अवस्था है जब साधक या भक्त अपनी तरफ से सोचना छोड़ पूरी तरह गुरु-भगवान की इच्छा के समक्ष नतमस्तक हो जाता है, अहंकार पूरी तरह निरोहित हो जाता है और रह जाता है सिर्फ दिव्य निष्काम प्रेम जिसमें मैं-मेरा का भाव गल जाता है। कविवर श्री ओमप्रकाश विकल जी कहते हैं- प्रेम के तरु अधिक ऊँचे और लम्बे हैं न होते। मार से वे प्यार के, नीचे झुके अति नम्र होते॥
Wednesday, March 3, 2010
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