आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, November 11, 2010

बर्फ ओढ़ कर आग की तपिश नहीं मिलेगी........



लेकिन गर्मी कब मिलेगी? जब हम सामान्य रूप में जाऐंगे। आग के पास जाऐं और बर्फ ओढ़ कर बैठ जाऐं तो आग की तपिश कहाँ से मिलेगी? नहीं मिलेगी। जो आग की ताप है, टेम्प्रेचर है, वो बर्फ से ठण्ड़ा हो जाता है, बेजान हो जाता है। तुम बर्फ की सिल्ली लेकर गये और आग के पास बैठ गए तो कहेंगे कि आग ने तो कुछ नहीं किया हम तो ठण्डे ही रहे। ऐसे ही तुम किसी सन्त के पास में गए, किसी महापुरूष के पास में गए वो कोई भी हो सकते हैं, उनका कोई सम्प्रदाय नहीं होता, मजहब नहीं होता, कोई मत नहीं होता, कोई भेष नहीं होता कोई देश नहीं होता।


कोई ये कहे साधु तो गेरुए में ही मिलेंगे, नहीं, पेंट-सर्ट में भी रह सकता है, ट्रैक सूट में भी रह सकता है, सफारी सूट में भी रह सकता है, सलवार सूट में भी रह सकता है, नंगा भी रह सकता है, पागल भी रह सकता है। कलारी पर भी मिल सकता है, कोठे पर भी मिल सकता है। तुमने कथा सुनी होगी कि कोठे पर कोई सन्त रहता था, उसको वैश्या कहते थे लोग। लोगों की निगाहें उसी जगह पर ही होती हैं, भीतर नहीं होती, कोठे पर रहती थीं। वैश्याओं में रहती थी, वैश्या नहीं थी, कोठे वाली नहीं थी। उसके भीतर कोई कपड़ा नहीं था, मन पर कोई कवर नहीं था, कुछ नहीं था। जैसे तुम किसी शीशे के सामने हरा फूल रख दो, पत्ता रखोगे तो तुम कहोगे, "शीशा हरा है।'' शीशा हरा नहीं है, जो शीशे के पास में जो हरा पत्ता रखा हुआ है, हरा कपड़ा रखा हुआ है उसका हरा रंग है, शीशे का हरा रंग नहीं है। जैसे कोई संत कोठे पर रहता है तो वो कोठे वाले, कोठे वाले हैं। संत कोठे वालों में से नहीं हैं। उसमें उसका कोई भी रंग रूप, कोई भी लक्षण अवस्था, दोष, कुछ भी नहीं है।

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