संतोष पाण्डेय धर्म पुरोहित चर्च आफ असेन्सन्स अलीगढ़
यह शब्द पुरातन नियम का है, जिसका अर्थ है-अर्पित करना या पृथक करना। अपने आपको परमेश्वर की सेवा हेतु अलग कर देना है। नये नियम दो बार यह शब्द प्रयुक्त किया गया है। प्रथमः नियुक्ति से संबंधित है। दूसराः बलिदान से संबंधित है। पौलुस प्रेरित कहते हैं कि "मैं अर्घ की नाई उण्डेला जाता हूँ।'' प्रथमतः जब मनुष्य सूर्य को जल अर्पित करता है और वह जलपात्र से जल उण्डेलता है इसमें केवल जल उण्डेलने का भाव देह, आत्मा और प्राण को सौंपना है। समर्पण से तात्पर्य मानव का स्वयं को पूर्णतः किसी के हाथों में सौंपना है, यदि परमेश्वर को तो इसमें परमेश्वर की इच्छा तथा कार्य सर्वोपरि है इसके अलावा कुछ भी नहीं हैं। संभवतः इस समर्पण में हमारी अपनी इच्छाओं, अभिलाषाओं का दमन शामिल है जो असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। एक उदाहरण द्वारा इसे समझ सकते है। ÷÷मादा बांदरी अपने अबोध शिशु को अपने पेट से चिपकाकर वृक्षों में ऊँची छलांग लगाती है।'' यहाँ पर शिशु का अपनी माता के प्रति पूर्ण सौंपना या समर्पण है। यद्यपि माता के हाथ और पैर स्वतंत्र हैं, परन्तु माता को यह अहसास है कि उसका शिशु उससे चिपका हुआ है। यहां पर विश्वास एवं भरोसे की मजबूत दीवार है जहां पर सुरक्षा शामिल है। समर्पण हमारे जीवन में अपने प्रभुत्व या स्वामित्व का त्याग करके परमेश्वर प्रभु यीशु को प्रभु या राजा के रूप में सिंहसनारूढ़ करना है, जो स्वयं का प्रभु यीशु के प्रति आत्म समर्पण है। बाइबिल धर्मग्रंथ में रोमियो की पत्री के द्वादश सोपान में प्रथम पद में इसका सम्पूर्ण वर्णन है कि हम मानव आखिर अपने आपको परमेश्वर की इच्छा पर क्यों छोड़ दे क्या हमारी अपनी इच्छा काफी नहीं है?
क्रमशः
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