आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, April 14, 2010

चित्तरूपी भूमि में जन्मों-जन्मों के पाप-पुण्य रूपी संस्कार पड़े हुए हैं।

एक तरफ दैत्यों की सेना और एक तरफ देवताओं की। नर्मदा के किनारे भयंकर देवासुर संग्राम शुरू हो गया। परीक्षित! ये शूर सिंह देश का चित्रकेतु नामक राजा था। इसके एक बेटा हुआ था, एक करोड़ रानियों में और सौत रानियों ने उस बच्चे को मार दिया था। फिर उस जीवात्मा को उपदेश से वैराग्य हुआ और उसने संकर्षण का भक्ति से विमान प्राप्त किया लेकिन पार्वती जी के श्राप से ये असुर बना। तो वृत्रासुर ये हमारा चित्त है। इसमें जन्मों-जन्मों के संचित कर्म भरे पड़े हैं, पुण्य भी हैं और पाप भी हैं। इसको अवचेतन कहते हैं। हमारे इस मन में, जिनको हम जानते भी नहीं, बड़े-बड़े पाप भरे हैं और बड़े-बड़े पुण्य भरे हैं। जैसे कि इस जमीन में दुनियाँ भर के बीज हैं, पर जिन बीजों को बरसात में उगना है वे बरसात में ही उगेंगे, कितना भी पानी दो, नहीं उपजेंगे। और सड़ेंगे-गलेंगे भी नहीं। वक्+त आने पर ही उपजेंगे। इसी तरह हमारी चित्तरूपी भूमि में जन्मों-जन्मों के पाप-पुण्य रूपी संस्कार पड़े हुए हैं। जब मौसम आता है, तब कभी पाप आ जाता है, कभी पुण्य आ जाता है और यह बड़े-बड़े साधकों को नष्ट और भ्रष्ट कर देता है। बहुत सावधानी की जरूरत है, बहुत मनन की जरूरत है।

सकल पदारथ हैं जग माहीं। करम हीन नर पावत नाहीं॥

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