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Friday, March 13, 2009

श्रीमद् भगवद् गीताअध्याय १७ श्लोक १४

देवद्विजगुरु प्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।

ब्रह्‌मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

अनुवादः- देवताओं, ब्राह्‌मणों, गुरु तथा ज्ञानीजनों का यथायोग्य पूजन करना, शरीर को पवित्र रखना, सरलता तथा ब्रह्‌मचर्य तथा अहिंसा का पालन शरीर सम्बन्धी तप कहलाता है।

गूढ़ार्थः- अपने इष्ट देव व शास्त्रोक्त अन्य देवताओं का पूजन निष्कामभाव से करना चाहिए। श्रीकृष्ण ने भी देवताओं की पूजा को महत्वपूर्ण बताया है, इससे प्रसन्न होकर वे सभी अपने-अपने विभाग से सम्बन्धित उत्तम फल देते हैं। परन्तु ध्यान यह रखना है कि पूजन करने में अपने बड़प्पन का त्याग करके नम्र हो जाना होता है। पूजन की विधि और नियमों का पालन करने से अहंकार जाता रहता है और जीवन में अनुशासन आता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मण तथा गुरु ;जिनसे हमें शिक्षा प्राप्त होती हैद्ध हमारे बड़े, मार्गदर्शक, आचार्यजन तथा श्रेष्ठजन सभी का पूजन-वन्दन करना चाहिए। हम उनके कृतज्ञ हों तथा उनकी सेवा तथा आज्ञापालन करें। उन्हें हर प्रकार से प्रसन्न रखने का यत्न करें। शरीर के तप के अन्तर्गत इस प्रकार शरीर को शुद्ध-पवित्र रखना भी आता है। शरीर की शुद्धि से अन्तःकरण भी शुद्ध होता है। जब हम शरीर को साफ रखने का यत्न करते हैं तो ध्यान जाता है कि शरीर तो गंदगी का पात्र है। इसमें कुछ भी शुद्ध, पवित्र, निर्मल, सुगन्ध युक्त नहीं है। इससे शरीर से आसक्ति छूट जाती है तथा मिथ्या अभिमान नष्ट हो जाता है। सरलता शरीर सम्बन्धी तप का एक और अंग है। अपनी अकड़ व घमंड का त्याग करके नम्र तथा विनयशील बन जाना, जिससे कि सम्पूर्ण व्यवहार चलना-फिरना, उठना-बैठना, बोलना, देखना, खान-पान सब सादा-सरल हो जाए। इसी में साधक का कल्याण है। साथ ही साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना भी आवश्यक है। उसे स्त्रीसंग के विषय में शास्त्रोक्त नियमों का ;जो अलग-अलग आश्रमों के लिए अलग-अलग हैंद्ध का पालन करना चाहिए। उसे अपने भावों को शुद्ध रखना चाहिए तथा दृढ़ता पूर्वक अपने मन को पर स्त्री की तरफ नहीं जाने देना चाहिए। इसके अतिरिक्त अहिंसा भी शरीर सम्बंधी तप का अंग है। हिंसा के मूल में काम, क्रोध, स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार ही होते हैं। इन्हीं के कारण मनुष्य दूसरों को हानि पहुँचाता है या आहत करता है। मांस व चमड़े को पाने के लोभ में पशुओं को मारता है। अपनी स्वार्थपूर्ति में अन्धा होकर दूसरों का अहित कर बैठता है। इस प्रकार की हिंसाओं का अभाव ही अहिंसा है। देवपूजन शौच, आर्जव, ब्रह्मचर्य व अहिंसा ये पाँच प्रकार के शरीरिक तप हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसमें कष्ट नहीं उठाना होता, बस त्याग करना होता है। पूजन में बड़प्पन का त्याग, शुद्धि में आलस्य-प्रमाद का त्याग, सरलता में अहंकार का त्याग, ब्रह्मचर्य में विषय-सुख का तथा अहिंसा में अपने सुख की इच्छा का त्याग करना होता है। यह त्याग ही शारीरिक तप कहे जाते हैं।

1 comment:

Akhilesh Shukla said...

मानीय महोदय
आपके ब्लाग पर रचनाएं पढकर बहुत ही अच्छा लगा। इन रवनाओं में जीवन का मधुर संगीत है जो बांसुरी की धुन सा लग रहा है। संगीत के सातों सुरों से आने वाली सुमधुर धुन सदा आपके जीवन को सुखमय बनाएं रखें यही आशाकरता हूं।
अखिलेश शुक्ल
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