आंतरिक विधुत धारा विज्ञान के अनुसार जिस भी शब्द का उच्चारण हम लोग करते हैं,वह इस ब्राह्मंड में तैरने लगता है। उदाहरण के लिए एक रेडियो स्टेशन पर किसी भी गीत की पंक्ति का अंश बोला जाता है तो वह उसी समय वायुमंडल में फैल जाता है। तथा विश्व के किसी भी देश,किसी भी कोने में श्रोता यदि चाहे तो उसके रेडियो के माध्यम से उस गीत की पंक्ति का अंश सुन सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि रेडियो में सूई उसी फ्रीक्वैंसी पर लगाने की जानकारी हो। इस प्रकार ग्राहक और ग्राह्य का आपस में पूर्ण संपर्क आवश्यक है, उसी प्रकार मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तो मंत्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कंपन बनता है जो कि संपूर्ण वायु मंडल में व्याप्त हो जाता है। इसके साथ ही आंतरिक विधुत भी तरंगों में निहित रहती है। यह आंतरिक विधुत, जो शब्द उच्चारण से उत्पन्न तरंगों में निहित रहती है, शब्द की लहरों को व्यक्ति विशेष या संबंधित देवता,ग्रह की दिशा विशेष की ओर भेजती है।अब प्रश्न यह उठता है कि यह आन्तरिक विधुत किस प्रकार उत्पन्न होती है? यह बात वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मान ली गई है कि ध्यान,मनन,चिन्तन आदि करते समय जब व्यक्ति एकाग्र चित्त होता है,उस अवस्था में रसायनिक क्रियायों के फलस्वरूप शरीर में विधुत जैसी एक धारा प्रवाहित होती है(आंतरिक विधुत) तथा मस्तिष्क से विशेष प्रकार का विकिरण उत्पन्न होता है। इसे आप मानसिक विधुत कह सकते हैं। यही मानसिक विधुत (अल्फा तरंगें) मंत्रों के उच्चारण करने पर निकलने वाली ध्वनि के साथ गमन कर,दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करती है या इच्छित कार्य संपादन में सहायक सिद्ध होती है। यह मानसिक विधुत(उर्जा)भूयोजित न हो जाए,इसीलिए मंत्र जाप करते समय भूमी पर कंबल,चटाई,कुशा इत्यादि के आसन का उपयोग किया जाता है।
Tuesday, March 31, 2009
Sunday, March 29, 2009
माँ साँसों की तरह है।
प्रेमिका छोड़कर जा सकती है, पत्नी छोड़कर जा सकती है, पुत्र और पुत्रियाँ भी छोड़कर जा सकते हैं, किंतु माँ साँसों की तरह है। माँ इस धरती का नमक है। माँ हमारी नसों में दौड़ता खून है। माँ हमारे हृदय की धड़कन है। माँ के बगैर इस ब्रह्मांड का अस्तित्व नहीं। जिन देहधारी स्त्रियों ने माँ होने का दर्द सहा है। वे जानती हैं कि जगत जननी माँ क्या होती है।
कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी माँ सती पार्वती को ही शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है। इसके अलावा भी माँ के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेराँवाली आदि, लेकिन सबमें सुंदर नाम तो 'माँ' ही है।
माँ को जिसने भी जाना है, वह किसी भी 'माता की सवारी' आने वाली जगह पर नहीं जाएँगे, क्योंकि उस विराट शक्ति के समक्ष खड़े होने में देवताओं के दिल काँपते थे, तो उसका किसी के शरीर में आना असत्य है। सत्य के मार्ग पर चलो। सत्य यह है कि चित्त को माँ की श्रद्धा की ओर मोड़ो। माँ को अपनी अँखियों के सामने से मत हटाओ। कम से कम इन नौ दिनों में जानो कि माँ क्या है। उस माँ को भी जिसने तुम्हें ये देह दी और उस माँ को भी जिससे यह जगत जन्मा।
डूब जाओ 'माँ' के प्रेम में। जब तक डूबोगे नहीं, तब तक दु:ख और सुख के खेल में उलझे रहोगे। डूबने से ही मुक्ति मिलेगी। वेद, पुराण और गीता सभी कहते हैं कि जो इस प्रेम के सागर में डूबा है वही पार हुआ है।
प्रस्तुति : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
Saturday, March 28, 2009
कई जन्म से भटका हूं मैं, अब तो निज घर पाना है॥
कितने ही हमारे अपने, हमें छोड़ गये यहां पर।
कितनों को हमें छोड़कर, चले जाना है वहां पर॥
जो चले जाते है यहां से, फिर लौट कर नहीं आते।
लाख कोशिश भूलने पर, कभी दिल से नहीं जाते॥
ये दस्तूर है जहां का, इसे ऐसे ही चलते जाना है।
इस चौरासी के चक्कर में, बस आना और जाना है॥
कर लो भजन भगवान का, गर जीवन सफल बनाना है।
लालच की है ये दुनिया, मतलबी सारा जमाना है॥
बड़ी कठिन है डगर वहां की, कांटों पर चलकर जाना है।
कई जन्म से भटका हूं मैं, अब तो निज घर पाना है॥
Friday, March 27, 2009
घर में वास्तु
स्वाध्याय या अध्ययन
कक्ष वास्तु के अनुसार वायव्य, नैरित्य कोण और पश्चिम दिशा के मध्य स्वाध्याय कक्ष बनाना उचित है। ईशान कोण में पूर्व दिशा में पूजा गृह के साथ अध्ययन कक्ष बनाना सर्वोत्तम है।
शौचालय
वास्तु के अनुसार शौचालय हेतु नैर्)त्य कोण व दक्षिण दिशा के मध्य या नैर्)त्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य स्थान सर्वाधिक उपयुक्त है। शौचालय में सीट इस प्रकार होनी चाहिए कि उस पर बैठते समय आपका मुख दक्षिण या पश्चिम की ओर हो। शौचालय में एग्जास्ट फैन की स्थिति उत्तरी या पूर्वी दीवार पर लगाएँ। पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें। उत्तरी व पूर्वी दीवार क साथ शौचालय न बनाएँ।
Wednesday, March 25, 2009
शयनकक्ष की अनुकूलता
शयनकक्ष
गृहस्वामी का मुख्य शयनकक्ष भवन में दक्षिण या पश्चिम दिशा में होना चाहिए और सोते समय सिरहाना दक्षिण में और पैर उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए। पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव और सिर के रूप में मनुष्य का उत्तरी ध्रुव ऊर्जा की ऐ धारा पूर्ण कर देता है। इसी प्रकार पृथ्वी का उत्तरी धु्रव और मनुष्य के पैरों का दक्षिणी धु्रव भी ऊर्जा का दूसरी धारा पूर्ण करता है और चुम्बकीय तरंगों के प्रवेश में बाधा उत्पन्न नहीं होती है। ऐसा होने पर सोने वाले को शान्ति व गहरी नींद मिलती है जिससे बुद्धि ठीक रहती है। घर में भी सुख समृद्धि व सम्पन्नता रहती है। यदि दक्षिण दिशा में सिरहाना रखना सम्भव न हो तो सिरहाना पश्चिम की ओर रखना चाहिए। अन्य दिशाओं में पलंग और सिरहाना रखने से बुद्धि का संचालन ठीक से नहीं होता है।
Saturday, March 21, 2009
जिज्ञासा और समाधान 2
जिज्ञासा- महाराजजी नीतिवान और धर्मज्ञ भी क्यों अपने ज्ञान के विपरीत कार्य कर जाता है? धर्म के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति परेशान रहते है और बेईमान मजे मार रहे है, ऐसा क्यों हो रहा है? -कविता उपाध्याय, अलीगढ़
समाधान- स्वभाव के कारण ऐसा हो जाता है। मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों से उसका स्वभाव बन जाता है। उसका यह स्वभाव उससे ज्ञान के विपरीत कार्य करा देता है। इसीलिए तो गोस्वामी जी ने कर्म को प्रधानता दी है। ÷÷कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ............... ........'' सब कुछ इस पर आधारित है। कर्म जो हो चुका वह प्रत्यक्ष में हमें नहीं दिख रहा। हमें प्रत्यक्ष में वह स्वभाव रूप में दिखता है, लेकिन उसका मूल तो कर्म ही है। प्रारब्ध को तो स्वीकारना पड़ेगा। लेकिन प्रारब्ध के मूल में भी तो कर्म ही है। इसलिए सद्कर्म करो। क्योंकि पुरुषार्थ सर्वदा श्रेष्ठ है। हमें दिखने वाली परेशानियां उसके प्रारब्ध हो सकते हैं। लेकिन पुरुषार्थ के बल पर स्वयं के तेज से प्रारब्ध को निस्तेज किया जा सकता है।
Thursday, March 19, 2009
जिज्ञासा और समाधान
जज्ञासा- महाराजजी, धर्म को लेकर बहुत सी बातें कही जाती हैं। वेद कुछ कहते हैं, लोकाचार कुछ कहता है जबकि व्यवहार में देखने पर कुछ और ही सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए। किसे वरीयता दें? -कु० पूनम नई दिल्ली
समाधान- जिनके जीवन में धर्म श्रेष्ठ है, उन महापुरुषों का संग करो। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में इन तीनों की एकरूपता होगी। जिस के जीवन में इन तीनों की एकरूपता नहीं वह धार्मिक नहीं हो सकता। हां धर्मान्ध हो सकता है। सूक्ष्मतत्व इन्द्रियों की पकड़ से बाहर है। बुद्धि ज्ञान पर आधारित होने के कारण धर्म का निर्णय करने में सक्षम नहीं है। इसलिए सद्शास्त्र सम्मत जीवन जीने वाले सद्पुरुष का सत्संग को वरीयता दें।
जिज्ञासा- माराजश्री कृपया यह बजाएं कि आध्यात्मिकता और धार्मिकता में क्या अंतर है। -बचन सिंह तेवतिया
समाधान- मंजिल और रास्ते का। आध्यात्मिक होना लक्ष्य है जबकि धर्म के रास्ते पर चलकर व्यक्ति नैतिक होता है और वही आध्यात्मिकता सिखाती है।
Wednesday, March 18, 2009
दादी के बताए घरेलू नुस्खे
अजवायन, काली मिर्च और काला नमक-तीनों समभाग ले कर चूर्ण कर लें। इसे ५ ग्राम मात्रा में गरम पानी के साथ लेने से मन्दाग्नि दूर होती है।
अजवायन, वायविडंग ३-३ ग्राम, कपूर एक रत्ती और गुड़ पांच ग्राम-सबको मिला कर एक गोली बना लें। ऐसी १-१ गोली २-३ बार खाने से पेट के कृमि नष्ट हो जाते हैं।
केवल अजवायन का ५ ग्राम चूर्ण छाछ के साथ लेने से भी कृमि नष्ट हो जाते हैं।
अजवायन, छोटी हरड़ और सोंठ का चूर्ण-तीनों समभाग ले कर मिला लें। इसे एक चम्मच ;५ ग्रामद्ध, छाछ के साथ सुबह शाम लेने से आमवात की व्याधि दूर होती है।
अजवायन का चूर्ण पांच ग्राम और एक रत्ती कपूर शहद में मिला कर चाटने से उल्टी होना बन्द होता है।
अजवायन चूर्ण ५ ग्राम और १० ग्राम गुड़ मिला कर खाने और अजवायन चूर्ण में पिसा गेरु मिला कर शरीर पर मलने से शीत पित्त में तुरन्त लाभ होता है।
Tuesday, March 17, 2009
बन प्रेम पुजारी तुम्हारा प्रभु
कुछ तो अरमान मिटे दिल का, इस छाती से नेक लगालूँ तुम्हें॥
अब और विशेष न कामना है, बस अंक में श्याम बिठालूँ तुम्हें।
उरअंतर में ही छुपालूँ तुम्हें, निज प्राणों का प्राण बनालूँ तुम्हें॥
बिठला के तुम्हें मनमन्दिर में, मनमोहिनी रूप निहारा करूँ॥
भरि के दृग पात्र में प्रेम का जल, पद पंकज नाथ पखारा करूँ।
बन प्रेम पुजारी तुम्हारा प्रभु, नित आरती भव्य उतारा करूँ॥
Sunday, March 15, 2009
आशा - निराशा
Saturday, March 14, 2009
भगवान का वात्सल्य-स्नेह
जीवनोपयोगी सूत्र बातें
४० वर्ष की उम्र पार करते ही चावल, नमक, घी, तेल, आलू, और तली भुनी चीजों का सेवन कम कर देना
चाहिए।
भोजन में मौसमी फलों का सेवन अवश्य करें।
रात का भोजन सोने से तीन घंटे पहले अवश्य कर लेना चाहिए।
नाश्ता राजा की तरह करें, दोपहर का भोजन सामन्य नागरिक की तरह और रात्रि का भोजन रोगी की भांति लें।
गहरी नींद में सोए व्यक्ति को कभी न जगाएं।
नियमित हल्का व्यायाम अवश्य करें।
अगर न हो सके तो प्रातः लम्बी सैर करें।
अजवायन के ५ ग्राम चूर्ण में चुटकी भर सेन्धा नमक मिला कर पानी के साथ फांकने से अरुचि दूर होती है।
अजवायन ५ ग्राम, छोटी हरड़ ३ नग और एक रत्ती भुनी हींग-तीनों को पीस कर पानी के साथ फांकने से अजीर्ण दूर होता है। क्रमश :--------
Friday, March 13, 2009
श्रीमद् भगवद् गीताअध्याय १७ श्लोक १४
देवद्विजगुरु प्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
अनुवादः- देवताओं, ब्राह्मणों, गुरु तथा ज्ञानीजनों का यथायोग्य पूजन करना, शरीर को पवित्र रखना, सरलता तथा ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा का पालन शरीर सम्बन्धी तप कहलाता है।
गूढ़ार्थः- अपने इष्ट देव व शास्त्रोक्त अन्य देवताओं का पूजन निष्कामभाव से करना चाहिए। श्रीकृष्ण ने भी देवताओं की पूजा को महत्वपूर्ण बताया है, इससे प्रसन्न होकर वे सभी अपने-अपने विभाग से सम्बन्धित उत्तम फल देते हैं। परन्तु ध्यान यह रखना है कि पूजन करने में अपने बड़प्पन का त्याग करके नम्र हो जाना होता है। पूजन की विधि और नियमों का पालन करने से अहंकार जाता रहता है और जीवन में अनुशासन आता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मण तथा गुरु ;जिनसे हमें शिक्षा प्राप्त होती हैद्ध हमारे बड़े, मार्गदर्शक, आचार्यजन तथा श्रेष्ठजन सभी का पूजन-वन्दन करना चाहिए। हम उनके कृतज्ञ हों तथा उनकी सेवा तथा आज्ञापालन करें। उन्हें हर प्रकार से प्रसन्न रखने का यत्न करें। शरीर के तप के अन्तर्गत इस प्रकार शरीर को शुद्ध-पवित्र रखना भी आता है। शरीर की शुद्धि से अन्तःकरण भी शुद्ध होता है। जब हम शरीर को साफ रखने का यत्न करते हैं तो ध्यान जाता है कि शरीर तो गंदगी का पात्र है। इसमें कुछ भी शुद्ध, पवित्र, निर्मल, सुगन्ध युक्त नहीं है। इससे शरीर से आसक्ति छूट जाती है तथा मिथ्या अभिमान नष्ट हो जाता है। सरलता शरीर सम्बन्धी तप का एक और अंग है। अपनी अकड़ व घमंड का त्याग करके नम्र तथा विनयशील बन जाना, जिससे कि सम्पूर्ण व्यवहार चलना-फिरना, उठना-बैठना, बोलना, देखना, खान-पान सब सादा-सरल हो जाए। इसी में साधक का कल्याण है। साथ ही साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना भी आवश्यक है। उसे स्त्रीसंग के विषय में शास्त्रोक्त नियमों का ;जो अलग-अलग आश्रमों के लिए अलग-अलग हैंद्ध का पालन करना चाहिए। उसे अपने भावों को शुद्ध रखना चाहिए तथा दृढ़ता पूर्वक अपने मन को पर स्त्री की तरफ नहीं जाने देना चाहिए। इसके अतिरिक्त अहिंसा भी शरीर सम्बंधी तप का अंग है। हिंसा के मूल में काम, क्रोध, स्वार्थ, लोभ, मोह आदि विकार ही होते हैं। इन्हीं के कारण मनुष्य दूसरों को हानि पहुँचाता है या आहत करता है। मांस व चमड़े को पाने के लोभ में पशुओं को मारता है। अपनी स्वार्थपूर्ति में अन्धा होकर दूसरों का अहित कर बैठता है। इस प्रकार की हिंसाओं का अभाव ही अहिंसा है। देवपूजन शौच, आर्जव, ब्रह्मचर्य व अहिंसा ये पाँच प्रकार के शरीरिक तप हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसमें कष्ट नहीं उठाना होता, बस त्याग करना होता है। पूजन में बड़प्पन का त्याग, शुद्धि में आलस्य-प्रमाद का त्याग, सरलता में अहंकार का त्याग, ब्रह्मचर्य में विषय-सुख का तथा अहिंसा में अपने सुख की इच्छा का त्याग करना होता है। यह त्याग ही शारीरिक तप कहे जाते हैं।
Wednesday, March 11, 2009
हम जैसा चाहते हैं वैसा ही तत्काल क्यों नहीं हो जाता।
हम कभी कभी सोचते हैं, कि हम जैसा चाहते हैं वैसा ही तत्काल क्यों नहीं हो जाता। काश ऐसा होता कि कि हम जैसा चाहते वैसा ही हो जाता तो कितना मजा आता। प्रस्तुत कहानी में इसी प्रकार की एक घटना को कहानी रूप में दिया गया है कि अगर प्रभु हमारी चाहना पर तत्काल हमारी चाहत पूरी कर देते तो क्या क्या हो सकता था।
एक बार एक शिकारी घने जंगल में शिकार को गया। शिकार का पीछा करते करते वह रास्ता भटक गया और एक बीयाबान जंगल में पहुंच गया। उसका अंग अंग पूरी तरह थक चुका था। विश्राम करने की गरज से वह पेड़ की छाँव में जाकर बैठ गया। उसे यह ज्ञान नहीं था कि वह जिस पेड़ के नीचे बैठा था वह कल्प वृक्ष था।ं शिकारी बहुत लम्बे समय तक शिकार का पीछा करते रहने के कारण न केवल थक चुका था वरन उसे बड़ी जोर की भूख भी लगने थी। उसने सोचा कि काश इस समय भोजन मिल जाता तो मजा आ जाता। कल्पवृक्ष के नीचे तो जो इच्छा करो वह मिल जाता है। सो जैसे ही उसके मन में भोजन का विचार आया, उसका मनपंसद भोजन थाली में सजकर उसके सामने आ गया। भोजन की थाली देखकर वह हैरान हो गया कि अचानक थाली कहाँ से आ टपकी। परन्तु भूख के मारे उसका दम निकला जा रहा था। वह तुरंत ही भोजन करने लगा।
खाना खाते खाते उसके मन में विचार आया कि यह थाली आखिर आई कहाँ से? दूर दूर तक तो आदमी का नामोनिशान नहीं है। फिर विचार आया कि कहीं ये कोई भूत प्रेतों की माया तो नहीं है। भूत प्रेतों को विचार मन में आने की देर थी कि कल्पवृक्ष के प्रभाव से तुरंन्त वहाँ पर भूत प्रेत आ गए। उनको देखते ही वह घबरा गया और डर के मारे बोला, कि अरे मारे गए। उसका सोचना और बोलना था कि भूत प्रेतों ने उसे मारना शुरू कर दिया। पिटते पिटते शिकारी के मन में आया कि ये भूत प्रेत तो मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे, मार ही डालेंगे। इस विचार के मन में आते ही भूत प्रेतों ने उस शिकारी को मार डाला। बताओ कैसी रही मन में विचार आते ही कार्य पूर्ण होने की स्थिति। इसलिए कहा है कि प्रभु ने हर व्यवस्था हमारे कल्याण के निमित्त बनाई है। अगर उस शिकारी के मन में निगेटिव विचार नहीं आते तो वह पिटाई एवं मृत्यु से बच सकता था। इसलिए सदा पौजीटिव सोच रखो। रुद्र निश्चित कल्याण ही करेंगे।
Tuesday, March 10, 2009
भूले न 'रुद्र' तेरी भक्ति,
जीवन को सआना होगा।
पतझड़ में बसा दिल अपना
कलियाँ को भुलाना होगा।
लहरों को बनाकर कस्ती,
हर क्षण तेरी याद की मस्ती
भूले न 'रुद्र' तेरी भक्ति,
तेरे चरणों सी हस्ती॥
जीवन..................................
Monday, March 9, 2009
परमात्मा के शिशु
Sunday, March 8, 2009
जीवन तो धर्म का जीवन है,
जीवन तो धर्म का जीवन है, कर्मों का बन्धन है
धारा कब दूर नदी से, ईश्वर कब दूर खुदी से।
संयम कब दूर हदी से, कब जीव है दूर गति से।
जीवन....................................
जीवन के सफर में जानें कितने मकाम आते हैं
कितने आँसू दे जाते, कितने बहार लाते हैं।
प्यारे प्यारे दुःख डो, हँसते रोते मुखड़ों से
दिल के हंसीन टुकड़ों से खमोश खिले अधरों से।
जीवन.....................................
Saturday, March 7, 2009
Thought for the Week
Friday, March 6, 2009
'रुद्र' हमारे ईष्ट हम हैं सब भ्रष्ट
माई बहिन की नाक कटाई
कुल बूढ़ यौसब उमरि गँवाई
मरि मरि गये शरीर नरक में मीर
खलों की मइया व्यथा हरौ....................
सबरी शरम उतारि धरी है
मात पितन कूँ विपति करी है
'रुद्र' हमारे ईष्ट हम हैं सब भ्रष्ट
खलों की मइया व्यथा हरौ खल मण्डल....................
Thursday, March 5, 2009
खल मण्डल न आदत संवारै न जीवन सुधारै
खल मण्डल न आदत संवारै न जीवन सुधारै
खलों की मइया व्यथा हरौ बैकुण्डऊ में खल नहीं सुधरे
ऐकऊ कुकरम छोड़ न संवरे ऋषि मुनि न तें उलझे कबहुँ नहीं सुलझे
खलों की मइया..............................
हरिद्वार बदनाम करायौ लोक औ परलोक गँवायौ
लाज शरम कौ हरण त्याग कुल वरण
खलों की मइया व्यथा हरौ...................
Tuesday, March 3, 2009
यन्त्र ग्रहों की स्थिति को भी दर्शाते हैं
यन्त्र कागज, पत्थरों, धातुपत्र आदि पर बनाए जा सकते हैं। ये यन्त्र ग्रहों की स्थिति को भी दर्शाते हैं तथा उन पर ध्यान लगा कर ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त की जा सकती है। ग्रहों का हमारी भावनाओं तथा कर्मों पर प्रभाव पड़ता है। विभिन्न यन्त्रों को वेदों में बताए गए काल में तथा निश्चित तरीकों से बनाया जाता है। यन्त्र को आध्यात्मिक तकनीक भी कहा जाए तो उचित ही होगा, क्योंकि यह हमारे शरीर तथा मन 'तन्त्र तथा मन्त्र ' की शक्तियों को सही दिशा देकर उनका सदुपयोग करने में सहायक होते हैं। यन्त्रों से बहुमूल्य ऊर्जा के अनावश्यक क्षय से बचा जा सकता है। कुछ यन्त्र, ब्रह्माण्ड, चेतना तथा इष्ट देवता की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यन्त्र में देवताओं का वास होता है। यह देवताओं के आह्नान में सहायक होते हैं। हिन्दू संस्कृति में कई अवसरों पर घर-घर में रंगोली, अल्पना, चौक, मण्डल, कलम आदि पवित्र ज्यामितीय आलेखनों के रूप में यन्त्रों का निर्माण होता रहता है। इस प्रकार ये पूजा, यज्ञ तथा साधना का अभिन्न अंग हैं।
Monday, March 2, 2009
यन्त्र का शाब्दिक अर्थ है 'मशीन' अथवा कोई 'चिन्ह'
यन्त्र का शाब्दिक अर्थ है 'मशीन' अथवा कोई 'चिन्ह' जो कि मन की एकाग्रता में सहायक हो। परम्परागत रूप से आध्यात्म में इनका प्रयोग मन को संतुलित तथा एकाग्र करने हेतु होता है। यन्त्रों को धारण किया जा सकता है, बनाया जा सकता है अथवा इन पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। कहते हैं इनका जादुई ज्योतिषीय तथा आध्यात्मिक प्रभाव पड़ता है। यन्त्र शब्द संस्कृत मूल 'यम्' से बना है जिसका अर्थ है 'नियन्त्रित करना।' यन्त्र वह जो काबू करे। यह हमारे भीतर तथा बाहर की ऊर्जा व शक्तियों पर हमें नियन्त्रण दिलाने में सहायक होता है। यह पकड़ने वाले यन्त्र के समान किसी धारण के सार को पकड़ने या धारण करने अथवा मन को किसी, विचार विशेष में एकाग्र करने (उसे पकड़ने) में सहायक हो सकता है। एक आलेखन के रूप में यह एक चिन्ह है, जो कि तावीज+ो पर खोदा जाता है। इनमें जादुई शक्ति होती है ऐसी मान्यता है। यन्त्र तैयार करते समय कुछ ज्यामितीय आकृतियां तथा चिन्हों का प्रयोग होता है। कमल का फूल चक्रों का प्रतीक है। इसका प्रत्येक दल उस चक्र विशेष से सम्बन्धित मनोवृत्ति का द्योतक होता है। एक बिन्दु सृष्टि के आरम्भ बिन्दु को दर्शाता है। षट्कोण जो कि दो विपरीत त्रिकोणों से बनता है, शिव तथा शक्ति के सन्तुलन को अर्थात् अन्तर्मुखता-बहिर्मुखता कर्म तथा विचारशीलता में सन्तुलन का प्रतिनिधित्व करता है। स्वास्तिक (जैसा कि सभी जानते हैं) सौभाग्य, कल्याण, समृ(ि तथा आध्यात्मिक उन्नति का सूचक है। इनके अतिरिक्त यन्त्रों को बनाने में बीज मन्त्रों का प्रयोग भी अति महत्वपूर्ण है। ये बीजमन्त्र देवनागरी लिपि के अक्षर हं,ै जो कि अलग-अलग चक्रों तथा उनसे सम्बन्धित मूलवृत्तियों पर प्रभाव डालते हैं।