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Thursday, January 15, 2009

मंत्र की वास्तविक सफलता गुरु कृपा में ही निहित है।

गतांक se आगे-------

मंत्र सिद्धि के उपरांत उसका प्रयोग साधक पर निर्भर हो जाता है। वह चाहे उसका सदुपयोग करे चाहे दुरपयोग। मंत्र तो उसको विस्तारित करेगा। इसीलिए भी शायद हमारे मनीषियों ने सावधान किया कि मंत्र की वास्तविक सफलता गुरु कृपा में ही निहित है। कुछ लोग मंत्र को किसी देवता का गुणानुवाद भी मानते हैं। इस आधार पर अगर हम देखें तो पाएंगे कि दुनिया में ऐसा कोई मजहब नहीं जो किसी न किसी का गुणानवाद न करता हो। तो क्या हर मजहब, हर पंथ मंत्र की सामर्थ्य को स्वीकार कर चल रहा है। हमारे एक सुधी इंटरनेट पाठक ने इस पर बड़ा व्यावहारिक उदाहरण देकर हमें समझाने का प्रयास किया। उसे भी यहां लिख देना समीचीन ही होगा। उन्होंने कहा कि हमारा शरीर ब्रह्‌माण्ड है। इसकी संरचना यंत्र है। इसके संचालित होने की क्रिया विधि की जानकारी होना तंत्र है। और उसका क्रियाशील होना मंत्र है। बात शुरू में तो समझ में नहीं आई लेकिन सोचने पर अनुभव हुआ कि वह शायद ठीक ही तो कह रहा है। हम भली प्रकार जान लें कि यह शरीर है। हम इसके सभी फंक्शन्स के भी जानकार हो जाएं। इस प्रकार हम ज्ञानी डाक्टर हो सकते हैं। लेकिन अगर हम उसका संचालन नहीं जानते तो तो उस यंत्र और तंत्र की जानकारी किस काम की। विषय काफी विशाल है। इसलिए हम विभिन्न धर्माचार्यों एवं विद्वानों के विचारों को इस अंक में प्रकाशन के साथ सुधी पाठकों से भी उनके विचारों की अपेक्षा के साथ कर रहे हैं।

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