प्रारंभ में विचारों का आदान-प्रदान मौखिक रुप से होता था, उन्हें स्मृति द्वारा संप्रेषित किया जाता था। लिपियों के आविष्कार से विचार लिपिबद्ध होने लगे, इससे ज्ञान की विधाओं, दर्च्चन, गणित, ज्योतिष आदि को स्थायी रुप से संरक्षित किया जाने लगा। धीरे-धीरे नगर-राज्यों का क्षेत्र विस्तृत हुआ, कालान्तर में वे साम्राज्य बन गए और उनके मुखिया सम्राट बनें। कुछ सम्राट शूर-वीर होने के साथ विद्वान भी थे, उन्होंने अपने सलाहकारों में विद्वानों को भी स्थान दिया, कृतित्व को राज्याश्रय प्राप्त होने लगा, जो ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार में सहायक हुआ। प्राचीन काल के विद्वान प्रायः बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे, गणित, दर्च्चन के अतिरिक्त वे राजनीति तथा रणनीत में निपुण युद्धवीर भी थे। यहां इस बात को भी रेखांकित करना आवच्च्यक है, कि लगभग सोलहवीं शताब्दी तक विज्ञान को ज्ञान की अन्य धाराओं से वियुक्त नहीं किया गया था। सभ्यता के तीनों जन्म-स्थलों में उपर्युक्त उपलब्धियां हुई, फिर भी, अधिकांच्च पाच्च्चात्य ग्रंथों में, मिश्र, यूनान तथा बेबीलोन की उपलब्धियों का ही विच्चद वर्णन तथा यच्चोगान मिलता है, प्राच्य योगदानों को यथोचित स्थान तथा महत्व नहीं दिया गया है। अब, पाच्च्चात्य विद्वानों द्वारा मिश्र तथा यूनान की सभ्यता को प्राचीनतम तथा श्रेष्ठतम सिद्ध करने की चेष्टा पर प्रच्च्नचिन्ह लगाए जाने लगे हैं। विज्ञान की पाच्च्चात्य धारा में चीन तथा भारत के विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है, फिर भी, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पाच्च्चात्य धारा का मूल स्रोत मिश्र तथा यूनानी सभ्यता है। अतः भारत तथा चीन की उपलब्धियों की संक्षिप्त चर्चा करते हुए यूनान की उपलब्धियों पर प्रकाच्च डाला जाए। नई खोजों से स्पष्ट हो रहा है कि प्राचीन काल में वैज्ञानिक विकास की तीन समान्तर धाराएं थी, प्रथम, भारत (१५०० ई. पू. - १२५०), द्वितीय चीन (१०३० ई. पू. - १३००) तथा तृतीय पच्च्िचमी तथा निकटवर्ती देच्च, १००० ई. पूर्व - ४५०, (मिश्र, ग्रीस, तथा बेबीलोन)। इस विभाजन का अभिप्राय १,५०० वर्ष (ई. पू.) से पहले की उपलब्धियों को नकारना नहीं है, इस काल में भिन्न देच्चों के योगदान विवादास्पद हैं, उनके प्रमाण, अपेक्षाकृत, उतने सुनिच्च्िचत तथा सर्वमान्य नहीं है।
Sunday, January 4, 2009
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