पिछले अंक में तंत्र पर चर्चा के दौरान ही यह अनुभव होने लगा था कि तंत्र का ज्ञान बिना मंत्र के पूर्ण नहीं है। तंत्र की उपयोगिता मंत्र एवं यंत्र पर निर्भर है। मंत्र शब्द मन् एवं त्र का युग्म है। मन् अर्थात विचार एवं विश्वास तथा त्र अर्थात विस्तार। इस प्रकार शाब्दिक दृष्टि से मंत्र का अर्थ हुआ किसी विचार या विश्वास को विस्तार देना।
हम जानते हैं कि विचार की कोई सीमा नहीं होती। विचार तो अनंत तक हो सकता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि मंत्र अनंत तक विस्तारण योग्य विचार या विश्वास है। कुछ विचारकों ने मंत्र को मन का औजार भी कह कर परिभाषित किया है।
सामान्य प्रचलन में हर नेता तथा शिक्षक अपने अनुयायियों को कुछ मंत्र देने की बात कहता है। इस प्रकार इसे हम किसी क्रिया को पूर्ण करने का सरल एवं सटीक तरीका भी कह सकते हैं। कई लोग इसे किसी गुरु द्वारा कान में फूंके गए किसी वाक्य या श्लोक के रूप में मानते हैं। प्रश्न है कि आखिर मंत्र क्या है? क्या है इसकी शक्ति जो इसे हर सफल व्यक्ति अपने अनुचरों को इसे देना चाहता है।
अति प्राचीन काल से हमारे मनीषी स्रुतियों तथा धार्मिक गं्रथों में लिखी गई पद्यमय पंक्तियों को जिन्हें रिचा कहते थे को ही मंत्र के रूप में परिभाषित करते रहे हैं। ये रिचाएं मंत्र के रूप में यूं ही स्वीकार नहीं की गई हैं। वास्तव में प्राचीन ग्रंथों की प्रत्येक रिचा स्वयं में किसी विचार या विश्वास का विस्तार है। सनातन परम्परा के अनुसार 'मंत्र मूलम् गुरु कृपा' का अर्थ है कि गुरु की कृपा ही मंत्र का मूल है। इसका अर्थ हुआ कि वह प्रकाश पुंज जो हमें घोर अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, उसके अनुग्रह के परिणाम स्वरूप हमें मिलने वाला उसका हर वाक्य मंत्र है। और मंत्र वह शक्ति से जिससे हर मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। ----- शेष कल -----
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