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Friday, February 27, 2009

काया ही यन्त्र जिससे सर्वज्ञ हो सकें.

जैन धर्म किसी को इस विश्व रचयिता नहीं मानता। वह किसी एक अनादि सत्ता से इंकार करता है। जैन मंदिर में यदि ईश्वर है तो वह एक नहीं बल्कि असंख्य हैं। अर्थात जैन मतानुसार इतने ईश्वर हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। उनकी संख्या अनंत है और आगे भी अनंत काल तक होते रहेंगे। जैन मत के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ता को लिए हुए मुक्त हो सकता है। आज तक ऐसे अनंत आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। ये मुक्त जीव ही जैन धर्म के ईश्वर हैं। इन्हीं में से कुछ मुक्त आत्माओं को, जिन्होंने मुक्त होने से पहले संसार को मुक्ति का मार्ग बताया था, जैन धर्म तीर्थंकर मानता है। जैन धर्म का मन्तव्य है कि अनादि काल से कर्म बंध से लिप्त होने के कारण जीव अल्पज्ञ हो रहा है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के द्वारा उसके स्वाभाविक ज्ञान आदि सद्गुण ढके हुए हैं। इन आवरणों के दूर होने पर यह जीव अनंत ज्ञान आदि का अधिकारी हो जाता है, अर्थात सर्वज्ञ हो जाता है। जो मनुष्य कर्म बंधन काट कर मुक्त हुए हैं, वे महापुरुष ही सर्वज्ञ हैं। उन्होंने यह इस काया में रहकर ही किया है। अतः यह काया सक्षम है, उन आवरणों को काटने में। इसलिए कहा जा सकता है है कि यह काया ही वह यंत्र है जिससे सर्वज्ञ हुआ जा सकता है। कर्मों के कारण जीव के स्वाभाविक गुणों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता। उनके दूर होने पर प्रत्येक जीव अपनी अपनी स्वाभाविक शक्तियाँ प्राप्त करता है। जैसी अन्य धर्मों में परमेश्वर की मान्यता है वैसी ही जैन धर्म में तीर्थंकरों की मान्यता है। किन्तु ये तीर्थंकर किसी परमात्मा के अवतार रूप में नहीं होते, बल्कि संसारी जीवों में से ही कोई जीव प्रयत्न करके करते लोक कल्याण की भावना से तीर्थंकर पद प्राप्त करता है। तीर्थंकर अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्यधारी होते हैं। ये साक्षात भगवान या ईश्वर ही होते हैं। जहां जहां इनका विहार होता है वहां सर्वत्र शांति छा जाती है।

1 comment:

संगीता पुरी said...

अच्‍छा लगा जैन धर्म के बारे में पढकर....आगे की कडियों का इंतजार रहेगा।