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Monday, February 9, 2009

श्रीमद् भगवद् गीता से उद्धृत

अध्याय १७ श्लोक १६

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥

अनुवादः- मन की प्रसन्नता, सौम्यता का भाव, मनन शीलता, मन का निग्रह और भावों की भली भाँति शुद्धि, यही मन का तप कहलाता है।
गूढ़ार्थः- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तप तीन प्रकार के होते हैं- मन, शरीर तथा वाणी के। इनमें से वाणी का तप के विषय में प्रभु श्रीकृष्ण के द्वारा कहे गए श्लोक का गूढ़ार्थ अक्टूबर माह में प्रकाशित हो चुका है। प्रभु कहते हैं कि मन को हर परिस्थिति, घटना, देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि के संयोग अथवा वियोग में प्रसन्न रखना मन का सबसे बड़ा तप है। ऐसा तब सम्भव है कि जब व्यक्ति स्वयं को दुर्गुण दुराचारों से मुक्त कर ले। संसार में हर वस्तु, व्यक्ति चलायमान है आने-जाने वाले हैं। जब हम इन्हें अपनी प्रसन्नता का आधार बनाते हैं तो इनके आने जाने से प्रसन्नता भी अस्थायी हो जाती है। मन में हलचल होती है। तो हमें अनित्य को छोड़ नित्य निरन्तर रहने वाले प्रभु का सहारा लेना चाहिए। मन जब राग, द्वेष, स्वार्थ, अभिमान जैसे नकारात्मक भावों से मुक्त हो जाता है तथा मन में दया, क्षमा, उदारता तथा सभी के हित के सकारात्मक भावों का संचार होता है, तब मन में सौम्य हो जाता है। फिर मान-अपमान, लाभ-हानि, दोषारोपण आदि का साधक को कोई फर्क नहीं पड़ता वह हर हाल में सौम्य तथा सम रहता है। 'मौन' का अर्थ यहाँ वाणी के मौन से नहीं 'मन के मौन' से है ÷वाणी के मौन' से नहीं अन्यथा यह वाणी के तप के अन्तर्गत आता। इसका अर्थ है मन में द्वन्द्व ना हो कोई हलचल ना हो। शास्त्रों, पुराणों तथा सन्त-महापुरुषों की वाणियों का तथा उनके गहरे भावों का मनन होता रहे, सद्विचार तथा सभी के कल्याण का भाव मन में सदा बना रहे यही मन का मौन है। 'आम्तविनिग्रह' का अर्थ है मन तेल की धार के समान सतत एक ही प्रभु का चिन्तन करे मन सांसारिकता से हटकर स्वतः ही प्रभु की ओर लगे। उस पर साधक का इतना नियन्त्रण हो कि वह उस जहाँ से हटाना चाहे हटा ले तथा जहाँ भी लगाना चाहे, लगा ले। 'भाव संशुद्धिः' का अर्थ अपने स्वार्थ तथा अभिमान का त्याग तथा परहित का भाव होना। इस प्रकार मन की मुख्यता जिस तप में होती है उसे मन का तप कहते हैं।

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