एक समाज वैज्ञानिक के रूप में मैंने इस प्रस्तुतीकरण में वैश्वीकरण के भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की विवेचना के लिए उपकल्पनाएं इस प्रकार निर्मित की हैं- भारतीय संस्कृति वैश्वीकरण के प्रभाव में आ गई है। सिससे समाज में गैर बराबरी बढ़ रही है, व्यक्तियों का जीवन स्तर बढ़ा है तथा जातिवादी और साम्प्रदायिक मानसिकता पर मिश्रित प्रभाव पड़ा है तथा विविध संस्कृति पर मशीनवादी संस्कृति हावी हो रही है।
भारत सरकार द्वारा २४ जुलाई १९९१ को सार्वजनिक उद्योगों के निजीकरण तथा प्रारम्भिक रूप में मूलभूत सेवाओं को भी घरेलू और विदेशी निजी पूंजी के लिए खोल देने के साथ ही वैश्वीकरण ने भारत के दरवाजे पर पहला कदम रख दिया था। इसके दस वर्ष बाद २००१ में सरकार की उदार आयात निर्यात नीति भी लागू हो गई और इस प्रकार भारत पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय बाजार बन गया। प्रखर अमेरिकी चिन्तक नोम चोम्स्की इस उदारवाद को जनता की कीमत पर मुनाफा के रूप में परिभाषित करते हैं। उनकी यह परिभाषा कितनी प्रासंगिक है, यह आज के समाज वैज्ञानिकों के लिए परीक्षण की वस्तु है। मानव एक गतिशील प्राणी है। आश्रम चतुष्टय के अंतर्गत जब शूद्रों को ब्राह्मणों के समकक्ष बनने का चस्का लगा तो देश में संस्कृतिकरण हुआ। जब ब्राह्मणों को शूद्र अपने बराबर आते प्रतीत हुए तो उन्होंने पश्चिम संस्कृति को अपनाकर पश्चिमीकरण करना प्रारम्भ कर दिया और समाज में संस्कृतिकरण के साथ साथ पश्चिमीकरण की तरफ दौड़ शुरू हुई। देश आजाद होने के साथ जब उंच नीच का भेद काफी कम हो गया तो संस्कृतिकरण की गति मंद हुई, लेकिन पश्चिमीकरण अपनी गति से चलता रहा। यह पश्चिमीकरण का बीज ही आज वैश्वीकरण के वृक्ष के रूप में खड़ा हो गया है। पश्चिमीकरण के लिए उत्तरदायी जहां ब्रिटिश राजशाही का वैभव था तो वैश्वीकरण के पीछे बाजार का वैभव। भारतीय संदर्भ में वैश्वीकरण, ब्रिटिश राजशाही और पश्चिमी साम्राज्यवाद में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है।
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