आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, February 4, 2009

अज्ञान स्वरूपी अंधेरा तुम्हारे भीतर भरा पड़ा है।

एक दिन मेरा अपने आप से सामना हुआ। मैंने देखा मेरे सामने एक सवाल आकर खड़ा हो गया। उसने पूछा कि तुम्हारे चारों ओर तो अंधकार छाया हुआ था। उस अंधकार की वजह से तुम विषय भोग रूपी कूंए में कूदने वाली थीं। फिर तुम वापस कैसे लौट आईं? सवाल ने मुझे ताकत दे दी।

इस सवाल को देखते ही मेरी आंखों में चमक आ गई। मेरा मन झूमने लगा कि आज मैं अपने उस इष्ट के बारे में चर्चा करूंगी जिसकी वजह से आज मैं जीवित हूं ;मन में सद्गुण, संस्कार और आध्यात्मिकता का बना रहना ही जीवित रहना हैद्ध। और मैंने सामने खड़े सवाल को अपने साथ घटी घटना के बारे में बताना शुरू किया- एक समय मैं और मेरे साथी मित्र अज्ञान स्वरूपी अंधकार में भटक रहे थे। हमें कोई बचाने वाला नहीं था। मेरे सभी साथी मित्र विषय भोग रूपी कूंए में कूद गए। मैं भी कूदने को उद्यत थी। बस कूदने ही वाली थी कि भगवान की कृपा हुई।

मुझे दूर कहीं से एक आवाज सुनाई दी। उस आवाज में ऐसा जादू था कि बरबस मेरे पैर ठिठक गए। मैं लड़खड़ाई लेकिन आवाज इतनी करिश्माई थी कि मैं आगे बढ़ने की बजाय पीछे की ओर मुड़ गई। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मुझे अज्ञान रूपी अंधकार में कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उत्सुकतावश मैंने कहा, 'आप कौन हैं? मुझे कुछ दिखाई क्यों नहीं दे रहा है? ये अंधेरा कैसा है? और इस घोर अंधकार में भी आप मुझे कैसे देख पा रहे है? इतने सारे सवाल मैंने एक पल में उन पर दाग दिए। उस दिव्य ने बहुत जोर से ठीक मां की तरह प्यार से लबरेज फटकार लगाई और कहने लगे, 'अंधेरा बाहर नहीं है, ये अज्ञान स्वरूपी अंधेरा तुम्हारे भीतर भरा पड़ा है। इसी वजह से तुम मुझे देख नहीं पा रही हो। मेरे प्यारे बच्चे इस अंधकार को बाहर निकालो और तुम्हारे हृदय में जो प्रकाश पुंज है, उसकी रश्मि को चारों ओर छिटकने दो, तभी तुम मुझे और सत्य को पहचान सकोगी।

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