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Tuesday, February 10, 2009

वैश्वीकरण का भारतीय सामाजिक जीवन पर प्रभाव

वैश्वीकरण शब्द का प्रयोग पिछले सत्रह वर्षों से तेजी से प्रचलन में आया है। यद्यपि इस शब्द के नामकरण को लेकर अनेक विरोधाभास भी हैैं, तथा इसे विभिन्न प्रकार से परिभाषित भी किया जाता रहा है। वैश्वीकरण का ही प्रभाव है कि आज दुनिया पूर्व की अपेक्षा अधिक जुड़ी हुई है। पहले की अपेक्षा आज के दौर में सूचना एवं धन का प्रवाह बढ़ा है। दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली कोई भी खोज शीघ्र ही दूसरे कोने तक पहुंच जाती है। वैश्वीकरण को सामान्यतः इस रूप में भी स्वीकार करते हैं कि इसके अंतर्गत एक दूसरे देश के मध्य बड़ी तादात में धन, श्रम एवं ज्ञान का आदान प्रदान अधिक तेजी के साथ बिना रोकटोक के हो सकता है। कुछ विद्वान वैश्वीकरण को अंतर्राष्ट्रीय परिवार के रूप में भी परिभाषित करते हैं। जिस प्रकार इतिहासकार समय का वर्णन करने के लिए निराशा काल, शीत युद्ध काल, अंतरिक्ष काल, भक्ति काल आदि का प्रयोग करते हैं उसी प्रकार वर्तमान समय का वर्णन करने के लिए वैश्वीकरण शब्द उपयुक्त प्रतीत होता है। वैश्वीकरण आज के राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का वर्णन करता है। कुछ विद्वान इसे भौगोलिक व्यापार का पर्यायवाची मानते हैं। वैश्वीकरण के अंतर्गत व्यापार इस प्रकार किया जाता है कि मानो कोई राष्ट्रीय सीमा रेखा न हो। इसके साथ साथ वैश्वीकरण सामाजिक अराजकता फैलाने वाले तत्वों, पत्रकारों, मजदूर संगठनों, शिक्षण संस्थाओं व अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादियों को भी कार्य करने का मौका प्रदान करता है। डा० वी सुन्दरम ने वैश्वीकरण को उपनिवेशवादी नीति का परिणाम बताते हुए अपने शोध में कहा है कि वैश्वीकरण ब्रिटिश की साम्राज्यवादी नीति का ही रूपान्तरण है। उनके अनुसार जब पश्चिम ने अपने उपनिवेश, अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका व अन्य को छोड़ा था तब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड की राजशाही व पश्चिम साम्राज्यवाद का अंत नहीं हुआ था। धीरे धीरे यह शूक्ष्म रूप और अधिक हानिकारिक रूप में परिवर्तित होता रहा जो वर्तमान में वैश्वीकरण के रूप में दिखाई दे रहा है।

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