जैन धर्म किसी को इस विश्व रचयिता नहीं मानता। वह किसी एक अनादि सत्ता से इंकार करता है। जैन मंदिर में यदि ईश्वर है तो वह एक नहीं बल्कि असंख्य हैं। अर्थात जैन मतानुसार इतने ईश्वर हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। उनकी संख्या अनंत है और आगे भी अनंत काल तक होते रहेंगे। जैन मत के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ता को लिए हुए मुक्त हो सकता है। आज तक ऐसे अनंत आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। ये मुक्त जीव ही जैन धर्म के ईश्वर हैं। इन्हीं में से कुछ मुक्त आत्माओं को, जिन्होंने मुक्त होने से पहले संसार को मुक्ति का मार्ग बताया था, जैन धर्म तीर्थंकर मानता है। जैन धर्म का मन्तव्य है कि अनादि काल से कर्म बंध से लिप्त होने के कारण जीव अल्पज्ञ हो रहा है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के द्वारा उसके स्वाभाविक ज्ञान आदि सद्गुण ढके हुए हैं। इन आवरणों के दूर होने पर यह जीव अनंत ज्ञान आदि का अधिकारी हो जाता है, अर्थात सर्वज्ञ हो जाता है। जो मनुष्य कर्म बंधन काट कर मुक्त हुए हैं, वे महापुरुष ही सर्वज्ञ हैं। उन्होंने यह इस काया में रहकर ही किया है। अतः यह काया सक्षम है, उन आवरणों को काटने में। इसलिए कहा जा सकता है है कि यह काया ही वह यंत्र है जिससे सर्वज्ञ हुआ जा सकता है। कर्मों के कारण जीव के स्वाभाविक गुणों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता। उनके दूर होने पर प्रत्येक जीव अपनी अपनी स्वाभाविक शक्तियाँ प्राप्त करता है। जैसी अन्य धर्मों में परमेश्वर की मान्यता है वैसी ही जैन धर्म में तीर्थंकरों की मान्यता है। किन्तु ये तीर्थंकर किसी परमात्मा के अवतार रूप में नहीं होते, बल्कि संसारी जीवों में से ही कोई जीव प्रयत्न करके करते लोक कल्याण की भावना से तीर्थंकर पद प्राप्त करता है। तीर्थंकर अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्यधारी होते हैं। ये साक्षात भगवान या ईश्वर ही होते हैं। जहां जहां इनका विहार होता है वहां सर्वत्र शांति छा जाती है।
Friday, February 27, 2009
Wednesday, February 25, 2009
परमेश्वर मनुष्य को अपना प्रतिनिधि ठहराता है
इसरायली दृष्टिकोण में परमेश्वर मनुष्य को अपना प्रतिनिधि ठहराता है ताकि वह उन अधिकारों तथा सामर्थ का उपयोग कर सकें। भजन ८ के पद ५ और ६ परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सृष्टि में विशेष स्थान दिया गया है। "सब कुछ उसके पावों तले कर दिया।'' इस पद में भजनकार का तात्पर्य है कि अधिकार प्रतिनिधित्व करने हेतु दिया गया है प्रभुता या शासन करने हेतु नहीं। इसके विपरीत कई विद्वान यह आक्षेप लगाते हैं कि बाइबलीय सृष्टि का सि(ान्त पृथ्वी तथा उसके स्त्रोतों के दोहन का कारण है। १९६६ में "लियान व्हाइट'' ने भी अपने शीर्षक "दी हिस्टोरिकल रूट्स आफ इकालॉजिकल क्राइसिस'' में कुछ इसी प्रकार का प्रश्न उठाया हैं। "भजन ८ में हम परमेश्वर विषयक याहवेवादी विचार तथा पर्यावरणीय क्रम पाते हैं न कि पुरोहितीय वादी प्रभाव। पुरोहितीय परंपरा में परमेश्वर पशु राज्य पर भी प्रभुता ;शासनद्ध करता है....... भजन निश्चित रूप से यह विचार प्रगट करता है कि समूचा पर्यावरणीय क्रम परमेश्वर द्वारा संचालित किया जाता है।'' अतः मनुष्य का नैतिक उत्तरदायित्व है पर्यावरण के प्रति, जबकि यह उसका अंतरंग भाग है। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को यह सामर्थ प्रदान की गयी है कि वह प्रकृति को नियंत्रित करे, एक प्रतिनिधि के रूप में। यह मनुष्य के ऊपर है कि वह किस प्रकार प्रकृति को नियंत्रित करता है तथा उसकी चिंता करता है। यह कायनात और इसके जीव सभी वे यंत्र हैं जो परमेश्वर की सत्ता की पहचान कराते हैं।
Sunday, February 22, 2009
आत्मा'' तथा "श्वास'' हेतु एक ही मूल इब्रानी शब्द प्रयोग में लाया जाता है।
इसरायली परमेश्वर को एक संपोषक के रूप में देखते हैं जिसने अपनी सामर्थ से सम्पूर्ण सृष्टि को रचा तथा वह उसकी चिंता करता है। भजन ८ः४-५ तथा १०४ः१०-३० में भजनकार अपने प्रशंसा गीत में परमेश्वर को संपोषक मानता है। संसार को बनाकर केवल उसे ऐसे ही नहीं छोड़ा है परन्तु वह उसे निरंतर संभाले हुए है। ÷÷तू पशु के लिए घास और मनुष्य के लिए वनस्पति उपजाता है, जिससे मनुष्य धरती से भोजन वस्तु उत्पन्न करें।'' उत्पत्ति के प्रथम अध्याय में तीसरे दिन परमेश्वर ने वनस्पतियों तथा वृक्षों को उपजने की आज्ञा दी। इसी सत्य को भजन के उपरोक्त पद में बताया गया है। यहाँ पर जंगली पशुओं तथा मनुष्य दोनों के लिये परमेश्वर ने वनस्पतियों तथा पेड़ पौधों को उपजाया है। ÷÷उपजाना'' हेतु मूल इब्रानी शब्द का अर्थ है ÷÷खेती करना''। तात्पर्य यह है कि मनुष्य का कार्य है खेती करना, नाश करना नहीं तथा परमेश्वर मनुष्य एवं पशुओं का समान रूप से संपोषक है। भजन १०४ः३० में भजनकार एक गम्भीर सत्य को प्रगट करता है जिसमें परमेश्वर सभी जीवों की रखवाली करते हैं। "आत्मा'' तथा "श्वास'' हेतु एक ही मूल इब्रानी शब्द प्रयोग में लाया जाता है। उक्त पद में अर्थात् परमेश्वर का आत्मा के द्वारा पशु तथा वनस्पतियाँ बनाये जाते हैं। यह विचार भी बताया है कि परमेश्वर संपोषक है तथा वह इस प्रक्रिया को निरंतर करता है। "सब कुछ परमेश्वर के आत्मा द्वारा सृजा गया है जो निरंतर पृथ्वी के प्राकृतिक जीवन को साल दर साल नया करता है'' तात्पर्य यह कि परमेश्वर का हस्तक्षेप नियनित रूप से प्रकृति में है अतः हमें प्रकृति का आदर करना चाहिए तथा परमेश्वर की तरह प्रकृति का सम्मान कर उसकी देखभाल करना चाहिए।
Saturday, February 21, 2009
ब्रह्माण्ड को समझना है तो पिण्ड को समझो।
हर मत की अपनी पूजा पद्यति अलग हो सकती है, लेकिन सभी में कुछ निश्चित शारीरिक क्रियाएं अवश्य हैं। ये शारीरिक क्रियाएं क्यों सभी में हैं? विचारशील प्राणी इसकी तरफ आकर्षित अवश्य होता है। जिज्ञासा स्वाभाविक रुप से उत्पन्न होती है। कहीं न कहीं इन क्रियाओं के द्वारा शरीर को यंत्रवत किया जाता है। यंत्रवत किया जाना या यंत्र का बनाया जाना बहुत अलग नहीं हो सकता। मनीषियों ने बताया कि मनुष्य का शरीर ब्रह्माण्ड की इकाई है। ब्रह्माण्ड को समझना है तो पिण्ड को समझो। ब्रह्माण्ड की क्रियाविधि समझनी है तो पिण्ड की क्रिया विधि को समझो। ब्रह्माण्ड को संतुलित रखना है तो पिण्ड को संतुलित रखो। ईश्वर की सत्ता को विश्व का कोई भी धर्म इंकार नहीं करता। कोई उसे किसी रूप में स्वीकार करता है तो दूसरा किसी अन्य रूप में।
यंत्र की शक्ति को भी कोई धर्म या पंथ अस्वीकार नहीं करता। बस रूप बदलता है। कोई इस शरीर को ही यंत्र मानता है तो कोई कायनात को। सभी धर्मों के मानने वालों के चिह्न भी हैं। वे अलग अलग हो सकते हैं। नियंत्रण के औजार के रूप में यंत्र की सम्प्रभुता सभी मतों में दृष्टिगोचर होती है। हिन्दू धर्म सर्वाधिक प्राचीन होने के कारण इसमें यंत्रों के प्रयोग का सर्वाधिक उल्लेख मिलता है। इसमें प्रयुक्त यंत्रों का प्रयोग न केवल आध्यात्मिक वरन भौतिक उन्नयन के लिए भी होता है। इसी क्रम में विभिन्न मतों के विचार प्रस्तुत हैं।
Friday, February 20, 2009
यन्त्र वह जो काबू करे।
यन्त्र शब्द संस्कृत मूल ÷यम्' से बना है जिसका अर्थ है नियन्त्रित करना या बांधना। जिसके आधार पर वैदिक जन कहते हैं कि यन्त्र वह जो काबू करे। यन्त्र का शाब्दिक अर्थ है 'मशीन' अथवा कोई 'चिन्ह' जो कि मन की एकाग्रता में सहायक हो। इसका अर्थ किसी उपकरण, मशीन या साधन के रूप में भी होता है। यंत्र शब्द के किसी भी शाब्दिक अर्थ पर दृष्टि डालें तो उसका आशय एक साधन के रूप में ही प्रतीत होता है। तंत्र और मंत्र की प्रस्तावना एवं विवेचना के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि तंत्र और मंत्र अपने में अत्यंत प्रभावशाली होने के बावजूद यंत्र पर आश्रित हैं। विश्व में चाहे किसी भी धार्मिक मान्यता या मत के मानने वाले लोग हों वे किसी न किसी यंत्र का प्रयोग किसी न किसी रूप में अपने आध्यात्मिक उन्नयन के लिए अवश्य करते हैं। चाहे मंदिर हो चाहे मस्जिद हो, चर्च हो चाहे गुरुद्वारा, सबका एक अलग वास्तुशिल्प हो सकता है लेकिन मूल भावना सभी में एक ही पाई जाती है। कहीं कोई माला जपता है तो अलग अलग धर्मों में उसके मूंगे अलग अलग पदार्थों से बने हो सकते हैं, उनकी संख्या अलग अलग हो सकती है, लेकिन क्या कोई इनके अस्तित्व को इंकार करता है। कदाचित नहीं।
Thursday, February 19, 2009
वैश्वीकरण के कारण भारतीय समाज के रहन सहन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है।
वैश्वीकरण के कारण भारतीय समाज के रहन सहन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। बंगलौर, गुड़गांव, नौइडा आदि में बने कांक्रीट के जंगल, गगन चुम्बी इमारतें, तेज गति से भागती जिंदगी ने एक नई कार्य संस्कृति को जन्म दिया है। सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना काफी हद तक मशीनी हो गया है। कॉल सेन्टरों में कार्य करती महिलाओं तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कर्मियों के उच्चीकृत हो रहे वेतनमानों से यह पुष्ट होता है कि वैश्वीकरण के कारण कर्मचारियों की प्रस्थिति में सुधार हुआ है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापनों आदि ने भी मध्य एवं उच्च वर्गीय समाज के रहन सहन के स्तर को उन्नत करने में मदद की है।
अपनी बात को पूर्ण करते हुए मैं यहां यह कहना आवश्यक समझता हूं कि वैश्वीकरण के कारण समाज पर पड़ने वाले प्रभावों पर व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता है। मशीनीकृत संस्कृति की ओर बढ़ रहे समाज का अध्ययन इसके अनुकूलन में मददगार साबित हो सकेगा। इसमें शक नहीं कि उदारीकरण के परिणाम स्वरूप हुए वैश्वीकरण, के कारण भारतीय समाज में खुलापन आया है। दुनिया और देश के लोगों में दूरी घटी है। सामाजिक समरसता में वृद्धि हुई है। नागरिकों का जीवन स्तर उच्चीकृत हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि वैश्वीकरण के ही कारण परम्परावादियों का आक्रोश भी बढ़ा है। पर्यावरण पर भी वैश्वीकरण की छाया पड़ी है। प्राकृतिक सौन्दर्य को आघात लगा है तथा कृतिमता में वृद्धि हुई है, जिस पर व्यापक शोध आवश्यक है।
Monday, February 16, 2009
धारावाहिकों ने एक नए समूह को जन्म दिया है।
भारतीय समाज में अहिंसा का बड़ा महत्व है। इस अहिंसा के सिद्धांत के अंतर्गत सभी जीवों के प्रति समस्त प्रकार की हिंसा निषेध है। पिछले दशक में भारतीय समाज में हिंसक घटनाओं में वृद्धि हुई है। इसका आशय यह हुआ कि वैश्वीकरण के कारण भारत में हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं। सांख्यिकीय दृष्टि से तो यही सही है लेकिन इसके साथ दूसरा पहलू यह भी है कि इससे हिंसा के स्वरूप में परिवर्तन आया है। भारतीय समाज की संरचना में विभिन्न समूहों की बड़ी भूमिका रही है। ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही प्रकार के समाज शास्त्रीय अध्ययन इन समूहों के अध्ययन के बिना पूर्ण नहीं हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों के मध्य हुक्का समूह तथा महिलाओं के पनघट एवं शौच समूह समाज को प्रभावित करते हैं। नगरीय क्षेत्रों में प्रातः भ्रमण समूह तथा महिलाओं का किटी पार्टी समूह समाज को प्रभावित करता रहा है। उपरोक्त इंगित समूहों में चर्चा का प्रमुख बिन्दु दूसरे के जीवन में तांक झांक तथा उन पर चर्चा परिचर्चा रहा है। वैश्वीकरण के दौर में इन समूहों की उपयोगिता में कमी आर्ई है। दूरसंचार तथा टी। वी. के व्यापक प्रचलन तथा इन पर आने वाले धारावाहिकों ने एक नए समूह को जन्म दिया है। दर्शकों का इन धारावाहिकों के पात्रों से बनने वाला अमूर्त सम्बन्ध एक नए समूह की संरचना करने में सफल हो गया है। वैश्वीकरण का ही प्रभाव है कि अब घरों में महिलाएं पड़ौसियों आदि के बारे में चर्चा के स्थान पर धारावाहिकों के पात्रों तथा घटनाक्रमों पर अधिक चर्चा करती हैं।
Saturday, February 14, 2009
कालांतर में संघर्ष के उपरांत सभी ने भारतीय समाज की परम्पराओं को अंगीकार किया।
भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि यहां समय समय पर विदेशी आक्रांता जातियां आती रही हैं। उदाहरण के रूप में यवन, शक, हूण आदि प्रारम्भिक दौर में आए। ये अपना प्रभाव भारतीय संस्कृति पर नहीं छोड़ पाए वरन इन सभी ने भारतीय संस्कृति को अंगीकार किया। तात्कालिक रूप से निश्चित ही बाहर से आने वाला जब प्रभुत्व जमाता है तो प्रभु वर्ग से समाज प्रभावित होता है, लेकिन कालांतर में संघर्ष के उपरांत सभी ने भारतीय समाज की परम्पराओं को अंगीकार किया। सबसे बाद में आने वाले इस्लाम और अंग्रेजों का ही उदाहरण लें तो हम पाते हैं कि भारत में इन समाजों के अंदर भी जाति प्रथा लागू हो गई जो भारतीय समाज का अंग है और आज भी विद्यमान है। भारतीय संस्कृति इतनी प्राचीन और विशाल है कि इससे संगम करने वाली संस्कृति इसी को अंगीकार करती है। वर्तमान में वैश्वीकरण के कारण भारतीय संस्कृति की इस विशेषता को आघात लगा है। भारत के वैश्विक ग्राम में बदलने के कारण तथा इंटरनैट आदि के तेजी से फैलने के कारण भारतीय समाज एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इस पर व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता है। बहुत से समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि जिस प्रकार अन्य आक्रांताओं ने भारतीय संस्कृति को अंगीकार किया उसी परम्परा के अंतर्गत वैश्वीकरण की मशीनी संस्कृति भी भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर लेगी। परन्तु कुछ समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि इस बार ऐसा नहीं होगा। कुछ छोड़ने तथा कुछ ग्रहण करने की स्थिति के बाद ही स्थायित्व आएगा।
Friday, February 13, 2009
वैश्वीकरण ने भारतीय मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है।
वैश्वीकरण ने भारतीय मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित किया है। वैश्वीकरण के भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करने के लिए पहले भारतीय संस्कृति के मूल स्द्धिांतों को समझना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति स्थायित्व लिए हुए गतिशील संस्कृति है। इसकी गतिशीलता तथा स्थायित्व दोनों ही पक्षों पर वैश्वीकरण का प्रभाव दिखाई देने लगा है। ÷पब' संस्कृति का पनपना तथा एक परम्परावादी संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा मंगलौर के एक पब में घुसकर वहां उपस्थित लड़के एवं लड़कियों की बर्बर पिटाई करना, इसके दोनों ही पक्षों को दर्शाती है। महाराष्ट्र सरकार द्वारा ÷लिव इन रिलेशनशिप' को कानूनी दर्जा दिए जाने को बिल पेश करना भारतीय समाज पर वैश्वीकरण के प्रभाव का ही परिणाम है। भारतीय समाज में धर्म एवं आध्यात्मिकता का प्रमुख स्थान रहा है। कानून के द्वारा व्यक्ति को बाहरी तौर पर गैर कानूनी कार्य करने से रोका जा सकता है। धर्म और आध्यात्मिकता की शक्ति ही उसे अंदर से गलत एवं समाज के प्रतिकूल कार्य करने से रोकती है। वैश्वीकरण के कारण सूचना तकनीक में आमूल चूल परिवर्तन आया है। इसके परिणाम स्वरूप एक ओर जहां कट्टरपंथियों को इंटरनैट, मोबाइल आदि संचार माध्यमों से अपनी बात को तेजी से फैलाने का मौका सुलभ हुआ है तो दूसरी ओर समन्वयवादी धार्मिक भावनाएं एवं धर्मनिरपेक्षता को भी बल मिला है। भारतीय योग एवं आध्यात्मिक प्रवचनों का बढ़ता बाजार वैश्वीकरण के कारण सम्भव हुआ है। विभिन्न धर्मों के बारे में अधिकाधिक लोगों को अधिकतम जानकारी मिलने के कारण समाज प्रभावित हो रहा है। रुद्र संदेश जैसी पत्रिकाओं के इंटरनैट संस्करणों ने भारतीय सनातन विचारों को पूरी दुनिया में तेजी से फैलाया है जिससे समाज में अन्य धर्मों के बारे में जानकारी मिल रही है। इंटरनैट पर भाषा परिवर्तक सोफटवेयर्स की उपलब्धता ने एक दूसरे धर्म की अच्छी बातों को समझने की प्रवृत्ति बढ़ी है। हालांकि तंत्र मंत्र जैसी दुकानों को चलाने वालों की संख्या में भी वैश्वीकरण से उपलब्ध संसाधनों के कारण वृद्धि हुई है। लेकिन इस वृद्धि से भी हानि के साथ साथ लाभ भी हुआ है। जिस पर समाजशास्त्रीय शोध की आवश्यकता है।
Thursday, February 12, 2009
पश्चिमीकरण का बीज ही आज वैश्वीकरण के वृक्ष के रूप में खड़ा हो गया
एक समाज वैज्ञानिक के रूप में मैंने इस प्रस्तुतीकरण में वैश्वीकरण के भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की विवेचना के लिए उपकल्पनाएं इस प्रकार निर्मित की हैं- भारतीय संस्कृति वैश्वीकरण के प्रभाव में आ गई है। सिससे समाज में गैर बराबरी बढ़ रही है, व्यक्तियों का जीवन स्तर बढ़ा है तथा जातिवादी और साम्प्रदायिक मानसिकता पर मिश्रित प्रभाव पड़ा है तथा विविध संस्कृति पर मशीनवादी संस्कृति हावी हो रही है।
भारत सरकार द्वारा २४ जुलाई १९९१ को सार्वजनिक उद्योगों के निजीकरण तथा प्रारम्भिक रूप में मूलभूत सेवाओं को भी घरेलू और विदेशी निजी पूंजी के लिए खोल देने के साथ ही वैश्वीकरण ने भारत के दरवाजे पर पहला कदम रख दिया था। इसके दस वर्ष बाद २००१ में सरकार की उदार आयात निर्यात नीति भी लागू हो गई और इस प्रकार भारत पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय बाजार बन गया। प्रखर अमेरिकी चिन्तक नोम चोम्स्की इस उदारवाद को जनता की कीमत पर मुनाफा के रूप में परिभाषित करते हैं। उनकी यह परिभाषा कितनी प्रासंगिक है, यह आज के समाज वैज्ञानिकों के लिए परीक्षण की वस्तु है। मानव एक गतिशील प्राणी है। आश्रम चतुष्टय के अंतर्गत जब शूद्रों को ब्राह्मणों के समकक्ष बनने का चस्का लगा तो देश में संस्कृतिकरण हुआ। जब ब्राह्मणों को शूद्र अपने बराबर आते प्रतीत हुए तो उन्होंने पश्चिम संस्कृति को अपनाकर पश्चिमीकरण करना प्रारम्भ कर दिया और समाज में संस्कृतिकरण के साथ साथ पश्चिमीकरण की तरफ दौड़ शुरू हुई। देश आजाद होने के साथ जब उंच नीच का भेद काफी कम हो गया तो संस्कृतिकरण की गति मंद हुई, लेकिन पश्चिमीकरण अपनी गति से चलता रहा। यह पश्चिमीकरण का बीज ही आज वैश्वीकरण के वृक्ष के रूप में खड़ा हो गया है। पश्चिमीकरण के लिए उत्तरदायी जहां ब्रिटिश राजशाही का वैभव था तो वैश्वीकरण के पीछे बाजार का वैभव। भारतीय संदर्भ में वैश्वीकरण, ब्रिटिश राजशाही और पश्चिमी साम्राज्यवाद में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है।
Wednesday, February 11, 2009
वैश्वीकरण का भारतीय समाज पर प्रभाव
किसी भी नजरिए से देखें वैश्वीकरण ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। इसके प्रभाव ने न केवल विश्व भर के विकसित, विकासशील एवं अविकसित देशों की आर्थिक स्थितियों को प्रभावित किया है वरन समाज को भी प्रभावित किया है। सूचना तकनीक के क्रांतिकारी परिवर्तनों तथा कामगारों की गतिशीलता एवं देशीय सीमाओं की वर्जनाओं के शिथिल होने से सामाजिक संरचनाएं प्रभावित हुई हैं। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप पिछले दशक में भारत में निम्न परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं-
१ सूचना तकनीक के क्षेत्र में क्रांति आई है।
२ विदेशी मुद्रा भण्डार में वृद्धि हुई है।
३ सीमाओं से बाहर पूंजी निवेश के परिणामस्वरूप वित्तीय संसाधनों का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ है।
४ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रभुत्व बढ़ा है।
५ बाजार पर सरकार का अंकुश क्षीण हुआ है।
६ वस्तुओं के उत्पादन के तरीकों में अंतर आया है।
७ कुशल श्रमिकों, तकनीशियनों, प्रबंधकों की गतिशीलता में वृद्धि हुई है।
भारत सनातन परम्पराओं का देश रहा है। लम्बे समय तक मुगल एवं अंग्रजों के साम्राज्य का अंग रहने के बावजूद इसने अपनी सनातन परम्पराओं ने बनाए रखा है। वैश्वीकरण के कारण समाज में एक वर्ग ऐसा भी विकसित हुआ है जो इन परम्पराओं को सामाजिक निर्योग्यताओं के रूप में स्वीकार कर रहा है तो दूसरा वर्ग इन परम्पराओं को बचाए रखने के लिए प्रयासरत है, जिससे समाज के ढांचे में विघटन की छाया पड़ती प्रतीत हो रही है।
Tuesday, February 10, 2009
वैश्वीकरण का भारतीय सामाजिक जीवन पर प्रभाव
वैश्वीकरण शब्द का प्रयोग पिछले सत्रह वर्षों से तेजी से प्रचलन में आया है। यद्यपि इस शब्द के नामकरण को लेकर अनेक विरोधाभास भी हैैं, तथा इसे विभिन्न प्रकार से परिभाषित भी किया जाता रहा है। वैश्वीकरण का ही प्रभाव है कि आज दुनिया पूर्व की अपेक्षा अधिक जुड़ी हुई है। पहले की अपेक्षा आज के दौर में सूचना एवं धन का प्रवाह बढ़ा है। दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली कोई भी खोज शीघ्र ही दूसरे कोने तक पहुंच जाती है। वैश्वीकरण को सामान्यतः इस रूप में भी स्वीकार करते हैं कि इसके अंतर्गत एक दूसरे देश के मध्य बड़ी तादात में धन, श्रम एवं ज्ञान का आदान प्रदान अधिक तेजी के साथ बिना रोकटोक के हो सकता है। कुछ विद्वान वैश्वीकरण को अंतर्राष्ट्रीय परिवार के रूप में भी परिभाषित करते हैं। जिस प्रकार इतिहासकार समय का वर्णन करने के लिए निराशा काल, शीत युद्ध काल, अंतरिक्ष काल, भक्ति काल आदि का प्रयोग करते हैं उसी प्रकार वर्तमान समय का वर्णन करने के लिए वैश्वीकरण शब्द उपयुक्त प्रतीत होता है। वैश्वीकरण आज के राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का वर्णन करता है। कुछ विद्वान इसे भौगोलिक व्यापार का पर्यायवाची मानते हैं। वैश्वीकरण के अंतर्गत व्यापार इस प्रकार किया जाता है कि मानो कोई राष्ट्रीय सीमा रेखा न हो। इसके साथ साथ वैश्वीकरण सामाजिक अराजकता फैलाने वाले तत्वों, पत्रकारों, मजदूर संगठनों, शिक्षण संस्थाओं व अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादियों को भी कार्य करने का मौका प्रदान करता है। डा० वी सुन्दरम ने वैश्वीकरण को उपनिवेशवादी नीति का परिणाम बताते हुए अपने शोध में कहा है कि वैश्वीकरण ब्रिटिश की साम्राज्यवादी नीति का ही रूपान्तरण है। उनके अनुसार जब पश्चिम ने अपने उपनिवेश, अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका व अन्य को छोड़ा था तब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड की राजशाही व पश्चिम साम्राज्यवाद का अंत नहीं हुआ था। धीरे धीरे यह शूक्ष्म रूप और अधिक हानिकारिक रूप में परिवर्तित होता रहा जो वर्तमान में वैश्वीकरण के रूप में दिखाई दे रहा है।
Monday, February 9, 2009
श्रीमद् भगवद् गीता से उद्धृत
अध्याय १७ श्लोक १६
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥
अनुवादः- मन की प्रसन्नता, सौम्यता का भाव, मनन शीलता, मन का निग्रह और भावों की भली भाँति शुद्धि, यही मन का तप कहलाता है।
गूढ़ार्थः- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तप तीन प्रकार के होते हैं- मन, शरीर तथा वाणी के। इनमें से वाणी का तप के विषय में प्रभु श्रीकृष्ण के द्वारा कहे गए श्लोक का गूढ़ार्थ अक्टूबर माह में प्रकाशित हो चुका है। प्रभु कहते हैं कि मन को हर परिस्थिति, घटना, देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि के संयोग अथवा वियोग में प्रसन्न रखना मन का सबसे बड़ा तप है। ऐसा तब सम्भव है कि जब व्यक्ति स्वयं को दुर्गुण दुराचारों से मुक्त कर ले। संसार में हर वस्तु, व्यक्ति चलायमान है आने-जाने वाले हैं। जब हम इन्हें अपनी प्रसन्नता का आधार बनाते हैं तो इनके आने जाने से प्रसन्नता भी अस्थायी हो जाती है। मन में हलचल होती है। तो हमें अनित्य को छोड़ नित्य निरन्तर रहने वाले प्रभु का सहारा लेना चाहिए। मन जब राग, द्वेष, स्वार्थ, अभिमान जैसे नकारात्मक भावों से मुक्त हो जाता है तथा मन में दया, क्षमा, उदारता तथा सभी के हित के सकारात्मक भावों का संचार होता है, तब मन में सौम्य हो जाता है। फिर मान-अपमान, लाभ-हानि, दोषारोपण आदि का साधक को कोई फर्क नहीं पड़ता वह हर हाल में सौम्य तथा सम रहता है। 'मौन' का अर्थ यहाँ वाणी के मौन से नहीं 'मन के मौन' से है ÷वाणी के मौन' से नहीं अन्यथा यह वाणी के तप के अन्तर्गत आता। इसका अर्थ है मन में द्वन्द्व ना हो कोई हलचल ना हो। शास्त्रों, पुराणों तथा सन्त-महापुरुषों की वाणियों का तथा उनके गहरे भावों का मनन होता रहे, सद्विचार तथा सभी के कल्याण का भाव मन में सदा बना रहे यही मन का मौन है। 'आम्तविनिग्रह' का अर्थ है मन तेल की धार के समान सतत एक ही प्रभु का चिन्तन करे मन सांसारिकता से हटकर स्वतः ही प्रभु की ओर लगे। उस पर साधक का इतना नियन्त्रण हो कि वह उस जहाँ से हटाना चाहे हटा ले तथा जहाँ भी लगाना चाहे, लगा ले। 'भाव संशुद्धिः' का अर्थ अपने स्वार्थ तथा अभिमान का त्याग तथा परहित का भाव होना। इस प्रकार मन की मुख्यता जिस तप में होती है उसे मन का तप कहते हैं।
Sunday, February 8, 2009
धरा स्वर्ग सी बने
बने हम सभी सृष्टि के सिपाही।
धरा स्वर्ग सी बने और
सुंदर बन जाये संसार॥
प्रेम....................
प्यार ही है जगत में सार।
प्राणी को दो ये सुन्दर वरदान॥
प्रेम....................
सच्चा प्यार अमर कर दो।
प्रेम की मदिरा हमें पिला दो॥
प्रेम....................
गुरु की सेवा राम की पूजा।
गुरु पद रज की सादर, पूजा करा दो॥
प्रेम....................
स्वर्ग रत्नों की नहीं चाहना।
गुरु को गले लगा लो गुरु जी॥
जोइँ दोनों हीथ।
प्रेम का दो हम को वरदान॥
Saturday, February 7, 2009
प्रेम का दो हमको वरदान।
प्रेम का दो हमको वरदान।
प्रेम का कोई सदा व्यवहार॥
प्रेम................
पल-पल आज दिवस रजनी सा।
कर दो इसे आज आदित्य सा॥
पे्रम................
करें हम अपना आत्मा सुधार।
हमको दो सेवा का भार॥
प्रेम.................
सबको दें हम पूर्व सम्मन।
कोई हम सबसे अहर्निश प्यार॥
प्रेम......................
प्रस्तुति : अंजली शर्मा
Friday, February 6, 2009
मुझे आज पता चला था कि आज मेरा जन्म हुआ है।
गतांक se आगे ..........
उस दिव्य की स्नेह व ज्ञानयुक्त बातें सुनकर मेरी आंखें भर आईं और मैं जोर जोर से रोने लगी। मैंने कहा हे दिव्य शक्ति मुझे कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मैं इस अज्ञान रूपी अंधकार को खत्म कर सकूं। मेरी विनती स्वीकार हुई और, इस प्रकार उस दिव्य ने मेरे हृदय में ज्ञान रूपी दिव्य दीपक जला दिया। बस फिर क्या था? मेरे मन का अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो गया। इस अंधकार के दूर होते ही मैंने देखा, "मेरे सामने कोई और नहीं मेरे मां स्वरूप दिव्य गुरुदेव थे। मैंने उन्हें नतमस्तक होकर प्रणाम किया और अपने मन में बार बार यही सोचने लगी कि मैं तो कहती थी कि मैं बड़ी हो गई हूं, मैं इतने साल की हो गई हूं। लेकिन वास्तविक रूप से तो मुझे आज पता चला था कि आज मेरा जन्म हुआ है। आज ही नहीं अब, इसी पल, इसी क्षण आध्यात्मिक दुनिया में एवं अब तो मेरा बचपन शुरु हुआ है। और इस तरह मैं अपनी आध्यात्मिक मां से प्रार्थना करने लगी कि हे मां स्वरूप गुरुदेव मुझे अपनी नजरों के सामने ही रखना। मुझे अपनी नजरों से इधर उधर मत करना क्योंकि आपकी पुत्री अभी बहुत छोटी है। आपने ही एक बार कहा था, "जब बच्चा छोटा हो तब मां बाप को उसे नजरों के सामने रखना चाहिए और जब वह बड़ा हो जाय तब उसे नजरों में रखना चाहिए..........'' इसी प्रार्थना के साथ कि हे दिव्य मां जैसे मुझे राह दिखाई उसी तरह हर भूले भटके को राह दिखाते रहना और...........................॥
Wednesday, February 4, 2009
अज्ञान स्वरूपी अंधेरा तुम्हारे भीतर भरा पड़ा है।
एक दिन मेरा अपने आप से सामना हुआ। मैंने देखा मेरे सामने एक सवाल आकर खड़ा हो गया। उसने पूछा कि तुम्हारे चारों ओर तो अंधकार छाया हुआ था। उस अंधकार की वजह से तुम विषय भोग रूपी कूंए में कूदने वाली थीं। फिर तुम वापस कैसे लौट आईं? सवाल ने मुझे ताकत दे दी।
इस सवाल को देखते ही मेरी आंखों में चमक आ गई। मेरा मन झूमने लगा कि आज मैं अपने उस इष्ट के बारे में चर्चा करूंगी जिसकी वजह से आज मैं जीवित हूं ;मन में सद्गुण, संस्कार और आध्यात्मिकता का बना रहना ही जीवित रहना हैद्ध। और मैंने सामने खड़े सवाल को अपने साथ घटी घटना के बारे में बताना शुरू किया- एक समय मैं और मेरे साथी मित्र अज्ञान स्वरूपी अंधकार में भटक रहे थे। हमें कोई बचाने वाला नहीं था। मेरे सभी साथी मित्र विषय भोग रूपी कूंए में कूद गए। मैं भी कूदने को उद्यत थी। बस कूदने ही वाली थी कि भगवान की कृपा हुई।
मुझे दूर कहीं से एक आवाज सुनाई दी। उस आवाज में ऐसा जादू था कि बरबस मेरे पैर ठिठक गए। मैं लड़खड़ाई लेकिन आवाज इतनी करिश्माई थी कि मैं आगे बढ़ने की बजाय पीछे की ओर मुड़ गई। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मुझे अज्ञान रूपी अंधकार में कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उत्सुकतावश मैंने कहा, 'आप कौन हैं? मुझे कुछ दिखाई क्यों नहीं दे रहा है? ये अंधेरा कैसा है? और इस घोर अंधकार में भी आप मुझे कैसे देख पा रहे है? इतने सारे सवाल मैंने एक पल में उन पर दाग दिए। उस दिव्य ने बहुत जोर से ठीक मां की तरह प्यार से लबरेज फटकार लगाई और कहने लगे, 'अंधेरा बाहर नहीं है, ये अज्ञान स्वरूपी अंधेरा तुम्हारे भीतर भरा पड़ा है। इसी वजह से तुम मुझे देख नहीं पा रही हो। मेरे प्यारे बच्चे इस अंधकार को बाहर निकालो और तुम्हारे हृदय में जो प्रकाश पुंज है, उसकी रश्मि को चारों ओर छिटकने दो, तभी तुम मुझे और सत्य को पहचान सकोगी।
Tuesday, February 3, 2009
हीलिंग अँगरेजी शब्द है जिसका मतलब स्वस्थ मन, स्वस्थ तन प्रदान करना है।
वस्तुतः हीलिंग अँगरेजी शब्द है जिसका मतलब स्वस्थ मन, स्वस्थ तन प्रदान करना है। कई व्यक्ति कहते हैं इस शब्द को बदल दें, क्योंकि बहुतों को इसका मतलब समझ नहीं आता है। लेकिन हमने शब्द पर ध्यान नहीं देकर उसकी शक्ति, उसके कार्य पर ध्यान दिया। आखिरकार शब्द कुछ भी हो, काम ऊर्जावान एवं सिद्धि प्रदायक होना चाहिए। जब मंत्र हीलिंग के लिए व्यक्ति विशेष को हीलिंग चेम्बर में ध्यान लगवाकर बैठाया या लिटाया जाता है, तब उसके शरीर की अंदरूनी शक्ति को डाउजिंग द्वारा जाँच कर, उसकी परेशानी को परख एवं समझकर मंत्र शक्ति का प्रयोग किया जाता है। मंत्र हीलिंग और डाउजिंग एस्ट्रोलॉजी एकदूसरे के पर्याय ही हैं। डाउजिंग एस्ट्रोलॉजी से जहाँ संभावनाओं को तलाशा जाता है, उनके समाधान ढूँढे जाते हैं वहीं मंत्र हीलिंग से सभी समाधान किए जाते हैं। ठीक उसी तरह ईश्वर एक है, रूप अनेक हैं।
Sunday, February 1, 2009
धर्म या अध्यात्म की शक्ति सर्वोपरि है, जो अपने सही कर्म करवाती है।
अभिमंत्रित, मंत्रोपचारित पेंडुलम के द्वारा की जाने वाली हाउजिंग ही यहाँ आपकी मदद कर सकती है। यह आपके लिए अति सूक्ष्म एक्सरे मशीन का कार्य करती है। व्यक्ति आपके सामने हो या न हो, डाउजिेग के माध्यम से उसके गर्भ में आने से लेकर वर्तमान एवं भविष्य की स्थिति तक की संपूर्ण जानकारी निकाली जा सकती है। यदि जन्म है, मृत्यु है, आकाश है, पृथ्वी है, विज्ञान है तो ये सब भी हैं। डाउजिंग एस्ट्रोलॉजर एवं आध्यात्मिक मंत्र साधक के लिए अनहोनी को होनी करना असंभव नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि धर्म या अध्यात्म की शक्ति सर्वोपरि है, जो अपने सही कर्म करवाती है। बिना धर्म तो कर्म अपूर्ण है। एक बार स्थितियों की गहराई तक पहुँचते ही कार्य शुरू किया जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि भूतप्रेत, तंत्रमंत्र कुछ नहीं होता, किसी ने देखा है क्या? लेकिन देखा तो ईश्वर को भी नहीं है, परंतु उन पर भी सभी की अटूट श्रद्धा है। देखा तो हवा को भी किसी ने नहीं है, लेकिन महसूस तो सभी करते हैं। मंत्रों का प्रभाव मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्ति के प्रभाव का आधार मंत्र ही तो है क्योंकि बिना मंत्रसिद्धि यंत्र हो या मूर्ति अपना प्रभाव नहीं देती। मंत्र आपकी वाणी, आपकी काया, आपके विचार सभी को प्रभावपूर्ण बनाते हैं। इसलिए हीलिंग को मंत्रों से जोड़कर उसे सर्वशक्तिदायक बनाया।