आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Friday, October 10, 2008

जो शास्वत है वह सत्य और परिवर्तनशील असत्य

यह सत्य किसी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह बाह्य जगत्‌ जिसमें तमाम आकर्षण भरे पड़े हैं और जो देखने में अनेक दृढ़ रूपों में प्रकट होता है प्रत्येक क्षण बदलता रहता है और इसलिए असत्य है। यह इतना प्रत्यक्ष है कि इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं। एक विचारवान्‌ निरीक्षक तथा सूक्ष्म चिन्तनशील व्यक्ति को संसार की परिवर्तनशीलता पर विश्वास दिलाने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है। आम को आम, फावड़े को फावड़ा कहना अनुचित नहीं है। किसी अप्रिय सत्य का यथा तथ्य वर्णन कर देना जीवन को दुःखमय या नैराश्यपूर्ण दृष्टि से देखना नहीं है।

संसार की असत्यता पर विचार करना व्यर्थ नहीं है। इस विचार का नैतिक और उपयोगिता की दृष्टि से भी मूल्य है। ऐसा प्रायः देखने में आता है कि एक आदमी अस्वस्थता, धन-हानि, असफलता, बेचैनी इत्यादि अनेक प्रकार के घोर संकटों और दुःखों से घिर जाता है और स्वभावतः वह दुःखी, उदासीन और निराश हो जाता है और उसके लिए अपनी दुःखमय सत्ता का शांतिपूर्वक निर्वाह करना कठिन हो जाता है। परंतु वह व्यक्ति जो इस भौतिक संसार की परिवर्तनशीलता पर विश्वास रखने का आदी है, वह वीर है और धैर्यपूर्वक दुर्भाग्य का सामना करता है। जब कभी उसे कठिन अभाव का सामना करना पड़ता है और कोई सहारा दिखाई नहीं देता, तब वह निराश होने की अपेक्षा उस दुर्भाग्य में विचाशीलता से काम लेता है और अपने को इसी विचार से धैर्य देता है कि सुख हो या दुःख- इनमें से कोई स्थायी नहीं है, आखिर उसके कष्ट के दिन भी उतने ही छोटे और क्षणिक होंगे जितने सुख और सम्पन्नता के दिन थे।

प्रस्तुति :- पूनम सिकरवार दिल्ली

1 comment:

Truth Eternal said...

achchhi aur upayogi vyakhya hai ...."Ye din nahin rahenge" ...ye aisa mantra hai jo hamein samata mein rahana sikhata hai....ise yaad rakhane se khushi mein ham itrate nahin, aur dukh se ghabrate nahin.....
yahi samta to yog hai!