यह बिल्कुल सच है कि संसार की असत्यता की धारणा यदि निरंतर मन में रखी जाए तो वह एक मनुष्य को निस्पृह और निश्चिन्त बनाने में सहायता पहुँचाती है। निस्पृहता से बढ़कर दूसरा गुण नहीं है। स्पृहता या लोभ पाप की जड़ है जो आगे चलकर दुःख और कष्ट की जननी बन जाती है। जिसने निस्पृहता का अभ्यास कर लिया है वह किसी भी उच्च उद्देश्य में अपने को लगा सकता है क्योंकि एक निश्चिन्त व्यक्ति ही नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में महान कार्य कर सकता है।
जिसने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि प्रत्येक सांसारिक वस्तु परिवर्तन, विनाश और मृत्यु के अधीन है, वह अपने को किसी सांसारिक सुख में लिप्त नहीं होने देता। वह जानता है कि यह क्षणिक है, अतः उसके ध्यान देने योग्य नहीं है। इस प्रकार इस गतिशील संसार का उचित मूल्य निर्धारित कर लेने से हमारे जीवन का दृष्टिकोण "अंधकारमय और विषादपूर्ण'' नहीं कहा जा सकता, जैसा कि पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं, वरन् इससे हमारा हृदय आशा और आनंद से पूर्ण हो जाता है और हम प्रसन्न तथा संतुष्ट रहते हैं।
बाह्य जगत् के अंदर रहने वाली वस्तुओं का विश्लेषण करते हुए उसको परिवर्तन होते देख और फलतः उसे असत्य जानकर प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने निभ्रान्त रूप से उस आधारभूत सत्य का निर्देश किया है जो विकार रहित और अविनाशी है।
प्रस्तुति : कविता
1 comment:
Kya Baat Hai........
Post a Comment