जनक के साथ वार्तालाप करते हुए याज्ञवल्क्य कहते हैं, "जब यह कहा जाता है कि ऐसा व्यक्ति देखता नहीं है, तो वास्तव में सत्य है कि वह देखता है और फिर भी नहीं देखता, क्योंकि देखने वाले की दृष्टि कभी नष्ट नहीं होती क्योंकि वह अनाशवान् है, परंतु उसके अतिरिक्त और उससे बाहर कोई वस्तु है ही नहीं जिसके लिए कहा जा सके कि वह उसको देखता है। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि वह न सूँघता है, न स्वाद लेता है, न बोलता है, न सुनता है, न स्पर्श करता, जानता या विचार करता है, तब उसका अर्थ यह है कि वह यह सब काम करता है और फिर भी नहीं करता, क्योंकि उसके गंध, रस, स्पर्श, वाक्, श्रवण, कल्पना और ज्ञान इत्यादि की शक्तियों का कभी विनाश नहीं होता, क्योंकि वे अनाशवान् हैं परंतु आत्मा के बाहर और उससे भिन्न कुछ है ही नहीं जिसे वह सूँघे, जिसका स्वाद ले या जिससे बोले, जो सुनी जा सके या जिसकी कल्पना, विचार या स्पर्श हो सके। इस प्रकार याज्ञवल्क्य अपने को क्षणिक विज्ञानवाद से बचा लेते हैं जहाँ अपने अखण्ड अद्वैतवाद के कारण वे पहुँच गए थे। उल्लिखित वाक्यों का निष्कर्ष यह है कि अद्वैतवादी के लिए आत्मा के अतिरिक्त उससे भिन्न या बाहर कोई अन्य वस्तु नहीं है, उसके किसी अंश का ज्ञान प्राप्त करना पूर्ण का ज्ञान प्राप्त करना है, वही आदि कारण हैऋ उसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु केवल भ्रममात्र है, वही एक नित्य ज्ञानवान् है और जब वह आत्मा व्यक्त जगत् के देखने या जानने के कार्य में उलझ जाता है। फिर भी सत्य यह है कि वह न देखता है और ना जानता है। आत्मा ही केवल एक सत्ता है और उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
प्रस्तुति : जन्मेजय
3 comments:
Lazvaab likhaa hai.
आत्मा के अतिरिक्त उससे भिन्न या बाहर कोई अन्य वस्तु नहीं है, उसके किसी अंश का ज्ञान प्राप्त करना पूर्ण का ज्ञान प्राप्त करना है,
बहुत खूब
अच्छा लेख.
@आत्मा ही केवल एक सत्ता है और उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
याज्ञवल्क्य ब्रह्मज्ञानी थे. मैं एक आम आदमी की बात करता हूँ, जो आत्मा को व्यक्त जगत् के रूप में देखने या जानने के कार्य में उलझा रहता है. यही जीवन है और इसी के लिए ईश्वर ने उसे यहाँ भेजा है. वह उलझता है, सुलझता है, फ़िर उलझता है, फ़िर सुलझता है, और एक दिन ईश्वर में लीन हो जाता है. अगर सब जन्मते ही ज्ञानी हो गए होते तब इस संसार का कोई मतलब नहीं रह जाता.
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