कठोपनिषद् (१. १. २८) विचारपूर्ण ढंग से पूछता है- "कभी जराग्रस्त न होने वाले अमीरों के समीप पहुँचकर और उनके जीवन का उपभोग करके इस लोक में रहने वाला कौन जराग्रस्त मनुष्य होगा (जो केवल शारीरिक वर्ण के राग से प्राप्त होने वाले) सौन्दर्य और प्रेम के सुखों की चिंता से पूर्ण जीवन में सुख मानेगा?'' उसी भाव से कठोपनिषद् एक क्षण भर की अमर जीवन की चिंता के सामने इन्द्रिय सुख से पूर्ण एक दीर्घजीवन की निंदा करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि शास्वत ही सत्य है।
प्रस्तुति : जन्मेजय
1 comment:
बहुत सुन्दर। इन पवित्र विचारों को पाठकों तक पहुंचाने का शुक्रिया।
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