आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, October 16, 2008

मुंडकोपनिषद् के अनुसार सत्य





मुंडकोपनिषद् में बृहद्रथ पूछता है, "इस दुर्गन्धपूर्ण और जो मल-मूत्र, वायु, पित्त, कफ का एक ढेर मात्र है, और जो अपने ही अस्थि, चर्म, स्नायु, मज्जा, मांस, वीर्य, रक्त, श्लेष्म और अश्रु से नष्ट हो जाता है, उस सारहीन शरीर को अभिलाषाओं की पूर्ति से क्या लाभ है? यह शरीर काम, क्रोध, लोभ, भय, नैराश्य, द्वेष, प्रिय से पार्थक्य, अप्रिय से मेल, भूख, प्यास, जरा, मृत्यु, रोग और दुःख से ग्रस्त है। इसकी अभिलाषाएं पूरी करने से क्या लाभ? निश्चय ही यह समस्त ब्रह्म जगत्‌ नाशवान्‌ है। कीड़े और पंतगों तथा घास और वृक्षों को देखो, वे केवल नष्ट होने के लिए पैदा होते हैं। इनकी तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े समुद्र सूख जाते हैं, पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं, ध्रुव अपने स्थान से डिग जाता है, पर्वत-मालाएँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं, पृथ्वी जल-मग्न हो जाती है और स्वयं देवतागण भी अपने स्थान से हट जाते हैं।''


प्रस्तुति : राम मूर्ती सिंह मुरादाबाद

4 comments:

Anonymous said...

Kya Rammurti kalagarh wale hain? Ap to Ek Er. Dr. ke saath sath good lekhak bhi hain.

Anonymous said...

Are U Doctor of Hindi?

ashish said...

vichar Sunkar ati prasannta hue. aage bhi likhte rahiyega.

BASANT PRABHAT JOSHI said...

मुंडकोपनिषद् में ऐसा कुछ नहीं है जो आपने लिखा.