आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Monday, April 27, 2009

गीता आज भी उपयुक्त व अनुकरणीय है।

गीता एक सद्गृहस्थ अर्जुन को दिया उपदेश है जहां मृत्यु की भयावहता से कर्म क्षेत्र से पलायन करने की संतुति नहीं है। वहां तो नि:संग भाव से पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण मनोयोग, पूर्ण शक्ति से उत्कृष्ट कर्म करने की शिक्षा दी गयी है। गीता में सर्वत्र उल्लास है, उत्साह है, कर्तव्यनिष्ठा है, जीवन का मधुर संगीत है। यह एक योग्य शिक्षक द्वारा योग्य शिष्य को प्रदत्त जीवन जीने की अनूठी शैली है जो आज भी उतनी ही उपयुक्त व अनुकरणीय है।

गीता आज भी उपयुक्त व अनुकरणीय है।

गीता एक सद्गृहस्थ अर्जुन को दिया उपदेश है जहां मृत्यु की भयावहता से कर्म क्षेत्र से पलायन करने की संतुति नहीं है। वहां तो नि:संग भाव से पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण मनोयोग, पूर्ण शक्ति से उत्कृष्ट कर्म करने की शिक्षा दी गयी है। गीता में सर्वत्र उल्लास है, उत्साह है, कर्तव्यनिष्ठा है, जीवन का मधुर संगीत है। यह एक योग्य शिक्षक द्वारा योग्य शिष्य को प्रदत्त जीवन जीने की अनूठी शैली है जो आज भी उतनी ही उपयुक्त व अनुकरणीय है।

Saturday, April 25, 2009

गुरु का मान बखानते, वेद-पुराण अनन्त।


दिव्य, ज्ञानधन, तेजमय कृपा सिन्धु महाराज।

श्री श्री गुरुतर रुद्र जी पूरण करिए काज॥

रुद्र शरण, सेवा-चरण ज+ाके मन का ध्येय।

उसकी रक्षा सर्वविधि करते आप सनेह॥

गुरु का मान बखानते, वेद-पुराण अनन्त।

ऐसे सच्चे गुरु मिले, जैसे रुद्र भगवन्त॥

Friday, April 24, 2009

तुम्हारे प्रेम का सागर, उमड़ता है हृदय में अब।


अंधेरा छोड़ कर मैंने, उजाला पा लिया देखो।

जो विष के घूँट चिर पीऐ, वही अमृत बना देखो॥

अंधेरा..........................

अंधेरा जब भी घिर आए, पुकारो नाम तुम उनका।

तुम्हें अपना बनाने को, जमीं पर आऐंगे देखो॥

अंधेरा.........................

तेरी रहमत से हे! भगवन्‌, तुम्हारी मैं पुजारिन हूँ।

शरण में आ गई देखो, प्रभु अजमा के तुम देखो॥

अंधेरा..........................

यहीं श्र(ा की गाड़ी में, किनारा पा लिया मैंने।

द्वेष सब मिट गए मन से, सहारा पा लिया मैंने॥

अंधेरा............................

तुम्हारे प्रेम का सागर, उमड़ता है हृदय में अब।

मनुजता की मलाई का, करम करके तो तुम देखो॥

अंधेरा..............................

लिखी है कृष्ण ने गीता, और तुलसी ने भी रामायण।

महाभारत लिखी जिसने, उसे पढ़ कर तो तुम देखो॥

Wednesday, April 22, 2009

अंधेरा छोड़ कर मैंने, उजाला पा लिया देखो।

अंधेरा छोड़ कर मैंने,

उजाला पा लिया देखो।

जो विष के घूँट चिर पीऐ,

वही अमृत बना देखो॥

अंधेरा..........................

अंधेरा जब भी घिर आए,

पुकारो नाम तुम उनका।

तुम्हें अपना बनाने को,

जमीं पर आऐंगे देखो॥

अंधेरा.........................

तेरी रहमत से हे! भगवन्‌,

तुम्हारी मैं पुजारिन हूँ।

शरण में आ गई देखो,

प्रभु अजमा के तुम देखो॥

अंधेरा..........................

प्रस्तुति : श्रीमती अंजलि शर्मा

Sunday, April 19, 2009

ब्रह्मा की पूजा क्यों नहीं करते

पुराणों में कहा गया है कि ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया है। लेकिन फिर भी हम सृष्टि निर्माता की पूजा-अर्चना नहीं करते। क्यों? दरअसल, यह एक रहस्य है। भारत में केवल दो स्थानों पर ही ब्रह्मा का मंदिर है। एक दक्षिण भारत के कुंभ कणिम और दूसरा, उत्तर भारत के पुष्कर में। सच तो यह है कि भारत में ब्रह्मा पर आधारित कोई उत्सव या त्यौहार भी नहीं है।
हमारे मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि पूर्वजों ने सृष्टि के रचयिता की पूजा क्यों नहीं शुरू की? दरअसल, यह जानने के लिए हमें गहन विचार करना होगा। सभी धर्मों में यह बात कही गयी है कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया है। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, ब्रह्मा ने स्वयं को समझने के लिए सृष्टि का निर्माण किया था। इस सृष्टि ने स्त्री का रूप लिया। उसका नाम पड़ा सतरूपा, जिसका अर्थ है- जिसके कई रूप हों। सच तो यह है कि सतरूपा के अनवरत बदलते रूप को देखकर ब्रह्मा उस पर मोहित हो गए। वे इतने आसक्त हो गए कि उसके पीछे भागने लगे। उसे अपने नियंत्रण और वश में करना चाहा। इसी वजह से हम ब्रह्मा की पूजा नहीं करते हैं। यहाँ तक कि उन्होंने चार सिर धारण कर लिए, ताकि वे सतरूपा को लगातार देख सकें। हालांकि सतरूपा के रूप बदलने के साथ ब्रह्मा ने भी कई रूप धारण किए। उनकी यही कोशिश आज भी जारी है।
मजे की बात यह है कि इस कोशिश में उनका पांचवाँ सिर भी निकल आया। ब्रह्मा की यह अवस्था देवताओं को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने ब्रह्मा को खूब धिक्कारा। क्योंकि एक पिता अपनी पुत्री (सृष्टि) के पीछे भाग रहा था। यह एक रूपक है, लेकिन लोग इसे सीधे अर्थ में समझने की भूल करते हैं। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि हम दुनिया का निर्माण करते हैं और फिर उसी पर मोहित हो जाते हैं। इसमें जो सुख-दुख हैं, वे हमारे मन से पैदा होते हैं। इस तरह हम माया, भ्रम और पाश में जकड़ जाते हैं और इसीलिए हम पूजनीय नहीं रह पाते हैं अर्थात्‌ ब्रह्म भी पूजनीय नहीं हैं। कुछ समय बाद देवताओं ने ब्रह्मा की अवस्था की ओर शिवजी का ध्यान आकृष्ट कराया। उन्होंने अपना खड्ग उठाया और ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया। यह पांचवां सिर अहंकार है। यही अहंकार कहता है कि दुनिया मैंने रची है। शिवजी को इसी वजह से 'कपालिन' भी कहते हैं।
यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि हम अपनी दुनिया का निर्माण करते हैं और उसके साथ ही हमारे अंदर अहंकार पैदा होता है। लेकिन शिव की उपासना से हम इस अहंकार को खत्म कर सकते हैं। हम सभी ऐसा मानते हैं कि शिव और ब्रह्मा के बीच में विष्णु रहते हैं। भगवान विष्णु ब्रह्मा की तरह मोहासक्त नहीं हैं। वे संसार से खुद को अलग रखते हैं। उनमें वैराग्य है, फिर भी भौतिक जगत से जुड़े हुए हैं। उनका यह जुड़ाव कर्मयोग है। वे काम करते हैं, लेकिन फल की चिंता नहीं करते। यह अवधारणा समझ में आ जाए, तो हम पाएंगे कि हमारे चारों ओर ब्रह्म ही ब्रह्म हैं। अहंकारी भाव से हम अपनी दुनिया में रमे रहते हैं और दूसरों की दुनिया की परवाह नहीं करते। हम ब्रह्मा की पूजा भले ही न करें, लेकिन हम उन्हें समझ सकेंगे। ब्रह्मा ईश्वर नहीं हैं। वे हम से ज्यादा अलग नहीं हैं। वे अपना अस्तित्व खोज रहे हैं। ठीक उसी तरह हम सभी के अंदर ब्रह्मा हैं। दरअसल, उनकी तरह ही हम भी खुद को जानना चाहते हैं। उस खोज के बगैर हमें शांति नहीं मिलती।

Saturday, April 18, 2009

त्तेर्थ यात्रा के समय यह भी ध्यान रखें

५। धर्मशालाओं को छोड़ते समय कमरे की सफाई कर दें। हमारी गन्दगी कोई अन्य साफ करे तो तीर्थ का फल क्षीण होता है।
६। मन्दिरों, घाटों आदि को गन्दा न करें, इतनी अधिक संख्या में लोग तीर्थों पर जाते हैं। स्थान-स्थान पर भोजन व प्रसाद के दोने, पत्तल फेंकना, पालीथिन फेंकना व बिना सोचे विचारे मन्दिरों में स्थान-स्थान पर प्रसाद फेंकना व दीवारों पर रोली-सिंदूर आदि के हाथ पोंछना, तीर्थ स्थानों की शोभा को नष्ट करता है, उन्हें दूषित करता है। ऐसे तीर्थयात्रियों को तीर्थयात्रा से अच्छा फल प्राप्त नहीं हो सकता। तीर्थों पर बड़ी सावधानी से रहें, कि हमसे कहीं गन्दगी ना हो।
७। तीर्थ पर जाएं तो अपनी किसी गलत आदत को छोड़ने का संकल्प करके आएं। तीर्थ पर प्रभु के प्रेम का इससे बड़ा सुफल नहीं हो सकता कि हम उसकी छाप अपने आचार-विचार पर डाल लें। प्रेम में बुरी आदत सहजता से छूट जाती है। अतः तीर्थों पर जो लोग कुछ पसंद की चीज न खाने का, नए कपड़े न खरीदने आदि का संकल्प लेते हैं, उसके स्थान पर अपनी बुरी लत या आदत जैसे- सिगरेट, शराब, गाली देना, चोरी करना, कपट व द्वेष करना, घमंड आदि को छोड़ने का संकल्प लें तो यह तीर्थयात्रा पूरे जीवन को ही स्वर्गमय बना सकती है।
८. कहते हैं कि माता-पिता की सेवा किए बिना तीर्थ जाने का फल नहीं मिलता। अतः घर पर माता-पिता तथा अन्य गुरूजनों की सेवा करें। उनका आशीर्वाद लेकर ही तीर्थयात्रा का पूर्ण लाभ मिल सकता है।
९. तीर्थस्थल पर भी साधुजनों की सेवा करें। भक्तजनों के सामान व जूते-चप्पल की सम्भालने की व्यवस्था करें। सेवा इस भाव से करें कि हर रूप में नारायण की सेवा हो रही है। सेवा करने से मन नीता होता है व अहंकार कम होता है। उपरोक्त बातों का ध्यान रख कर की गई तीर्थयात्रा सदैव फलित होती है। भक्ति पुष्ट होती है तथा ईश्वर से व सर्वजन से प्रेम बढ़ता है।

Thursday, April 16, 2009

तीर्थ यात्रा के समय ध्यान देने योग्य बातें

तीर्थयात्रा करने तो सभी जाते हैं, पर तीर्थयात्रियों के लिए ग्रन्थों में कुछ बातें कही गई हैं, जिन पर अमल करें तो तीर्थयात्रा अधिक सरल व सुफलदायिनी हो सकती है। इनमें से कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं-

१। अहंकार को त्याग कर जाएं, सभी रूप में नारायण के दर्शन करें। तीर्थों पर इसका अभ्यास प्रारम्भ करें फिर समस्त स्थानों पर ऐसा ही भाव बना रहे- "प्रेम से मिलना इस दुनियाँ में, सबसे तू इनसान रे। जाने कब किस रूप में तुझको, मिल जाए भगवान रे॥'

२। तीर्थ पर जाकर मन में गलत भाव ना लाएं। जूते चुराना, मोबाइल व पर्स मार लेना, ऐसे दुष्कर्म करना तो दूर इनका विचार भी मन में ना आए। अन्य क्षेत्रों में किए हुए दुष्कर्मों की मुक्ति तीर्थों पर जाकर पाई जा सकती है, पर तीर्थों पर किए हुए पापों की कहीं मुक्ति नहीं।

३। असुविधा में भी प्रसन्न रहें। प्रभु प्रेम की ख़ातिर सब कुछ हँस कर सह जाना ही सच्ची तीर्थ यात्रा है। धर्मशालाओं में, कतारों में, यात्रा के दौरान सभी को असुविधा व प्रतीक्षा का सामना करना पड़ता है। ऐसे में अधीर होकर, एक दूसरे को अपशब्द ना कहें। प्रभु के प्रेम के रंग में ऐसे डूबें कि असुविधा का एहसास ही न हो। हमारे प्रेम के चिराग की प्रभु ऐसे हवा के झोंकों से परीक्षा लेते हैं। सब्र से काम लें तो तीर्थयात्रा पर सभी को भरपूर आनन्द मिलेगा।

४. तीर्थों पर अहंकार रहित होकर दान करना जरूरी है। दान करने से पाप क्षीण होते हैं व धन शु( होता है। साधुओं व अन्य पात्रों को दान देना प्रभु को प्रिय है। इससे नट के रूप में नारायण की सेवा होती है।

Wednesday, April 15, 2009

ध्यान से आसक्ति या मुक्ति तक

ध्यान एक ऐसी स्थिति है जब मनुष्य का मन - मस्तिष्क किसी व्यक्ति विषय या वस्तु की और लगा हो । पर यह ध्यान लगने और टूटने वाला होता है जैसे एक कक्षा में पढ़ाई चल रही है सब छात्रों का ध्यान पाठ में लगा है सब पूरे मनो योग से लेक्चर को सुन रहे हैं तभी कक्षा में कोई प्रवेश करे या कोई सामान गिर जाए तो क्या होता है ,सबका ध्यान उस और बह जाता है ।वैसे तो संसार में कुछ भी सदैव टिकने वाला नहीं पर ध्यान मन के आधीन होने के कारण बहता ही रहता है क्योंकि मन सेमान और चंचल है ।

Tuesday, April 14, 2009

विष न घोलो प्यार में, चलते बनो ......

विष न घोलो प्यार में, चलते बनो।
जीत मानो हार में, चलते बनो॥
धूप, बरखा या कि फूलों का मौसम।
प्यार हो व्यवहार में, चलते बनो॥
तरह-तरह की सज गयी हैं दुकाने।
क्रेता आते कार में, चलते बनो॥
जागने के लिये उपवास करते।
सो लिये संसार में, चलते बनो॥
तितलियों के फूल सपने देखते।
झाँको न मन के द्वार में, चलते बनो॥
गाँव वाले मुझे अपना समझते।
प्यार मुश्किल प्यार में, चलते बनो॥
यह नया युग है, नये हैं लोग भी।
सुख न काम-विकार में, चलते बनो॥
प्रस्तुति : रमेशचंद्र शर्मा 'चन्द्र'डी-४, उदय हाउसिंग सोसाइटीबैजलपुर, अहमदाबाद

Monday, April 13, 2009

गुरु के पास जाना ही सच्चा तीरथ

तीर्थयात्रा की महिमा में तो सभी धर्मों द्वारा कहा गया है। वह स्थान जो गुरुओं से किसी न किसी रूप में जुड़े हों, तीर्थ कहलाते हैं। इन स्थानों पर कुछ ऐसी दिव्यता होती है कि वहाँ जाकर मनुष्य की प्रभु से लगन लगने लगती है। वह कतारों में खड़ा होकर सब्र से अपनी बारी की प्रतीक्षा करता है। लंगरों में खाकर खुद को सभी के बराबर महसूस करता है, भगवान की कीरत करता है। गुरुबानी व सबद सुनकर झूम उठता है। ऐसे ही स्थानों का माहौल मन को भक्ति के रंग में डुबो देता है। बार-बार तीर्थयात्रा करने से मन भगवान में लगने लगता है। पर गुरुनानक ने एक बात और कही है कि तीर्थ, तप, दान सब कुछ तभी सफल है, जब मन नीवा हो और मनुष्य विनयशील निरअहंकारी हो। यदि तीर्थ करके आए और अहंकार कर बैठे कि हम तो तीर्थ पर जाते हैं, हम तो बड़े दानी हैं, हमारी बड़ी तपस्या है तो ऐसी तीर्थयात्रा को गुरुनानक 'कुंजर स्नान' की संज्ञा देते हुए कहते हैं-

तीरथ, तप और दान करे, मन में धरे गुमान। नानक निष्फल जात है, ज्यों कुंजर स्नान॥

अर्थात्‌ जिस प्रकार हाथी स्नान करने के उपरांत पुनः अपने ऊपर धूल डाल लेता है, उसी प्रकार तीर्थयात्रा, तप और दान करने के बाद जो शु(ि व सत्कर्म का फल मिलना चाहिए। वह अहंकार करने से क्षीण हो जाता है। तीर्थयात्रा, तप व दान तीनों ही को ऐसा माने कि "प्रभु की कृपा से ही हुआ है, उन्हीं ने करा लिया, हम कुछ नाहीं।''

प्रस्तुति : सरदार रणजीत सिंह, अलीगढ़

Sunday, April 12, 2009

जैन मतानुसार भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान ही तीर्थ


जैन दृष्टि से तो तीर्थ शब्द का एक ही अर्थ लिया जाता है, 'भवसागर से पार उतरने का मार्ग बताने वाला स्थान'। इसलिए जिन स्थानों पर तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, तप किया हो, पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो, या मोक्ष प्राप्त किया हो, उन स्थानों को जैनी तीर्थ स्थान मानते हैं। अथवा जहाँ कोई पूज्य वस्तु विद्यमान हो, तीर्थंकरों के सिवा अन्य महापुरुष रहे हों या उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया हो, वे स्थान भी तीर्थ माने जाते हैं। जैनों के तीर्थों की संख्या बहुत है। यहाँ सबके वर्णन शम्भव नहीं हैऋ क्योंकि जैन धर्म की अवनति के कारण अनेक प्राचीन तीर्थ आज विस्मृत हो चुके हैं, अनेक स्थान दूसरों के द्वारा अपनाए जा चुके हैं, कई प्रसि( स्थानों पर जैन मूर्तियाँ दूसरे देवताओं के रूप में पूजी जाती हैं। उदाहरण के लिए प्रख्यात बद्रीनाथ तीर्थ के मन्दिर में भगवान्‌ पार्श्वनाथ की मूर्ति बद्री-विशाल के रूप में तमाम हिन्दू-धर्मियों द्वारा पूजी जाती है। उस पर चन्दन का मोटा लेप थोपकर तथा हाथ वगैराह लगाकर उसका रूप बदल दिया जाता है, इसीलिए जब प्रातःकाल श्रृंगार किया जाता है, तब किसी को देखने नहीं दिया जाता। क्या आश्चर्य है जो कभी वह जैन मन्दिर रहा हो और शंकराचार्य द्वारा इस रूप में कर दिया गया हो, जैसा कि वहाँ के पुराने बूढ़ों के मुँह से सुना जाता है। अस्तु। दिगम्बर ही नहीं श्वेताम्बर आदि संप्रदायों के भी तीर्थ स्थान हैं। उनमें बहुत से ऐसे हैं जिन्हें दोनों ही मानते-पूजते हैं और बहुत से ऐसे हैं जिन्हें या तो दिगम्बर ही मानते-पूजते हैं, या केवल श्वेताम्बर, अथवा एक संप्रदाय एक स्थान में मानता है तो दूसरा दूसरे स्थान में। कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुंजय और सम्मेद शिखर आदि ऐसे तीर्थ हैं जिनको दोनों ही मानते हैं। गजपन्था, तुंगी, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेडगिरी, सि(वरकूट, बड़वानी आदि तीर्थ ऐसे हैं जिन्हें केवल दिगम्बर परम्परा ही मानती है और आबू, शंखेश्वर आदि कुछ ऐसे तीर्थ हैं जिन्हें श्वेताम्बर संप्रदाय ही मानता है।

प्रस्तुति : पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री

Saturday, April 11, 2009

इस्लाम में हज है तीर्थ यात्रा

हज एक ऐसी पूजा है, जिसमें शारीरिक क्षमता व आर्थिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ये दोनों जिस किसी मुसलमान के पास हो, उसके लिए हज करना अनिवार्य है। कोशों में हज का अर्थ "किसी बड़े मक़सद का इरादा करना है।'' जिसके अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण कार्य महत्वपूर्ण समय में किए जाने होते हैं। उम्रभर में एक बार हर मुसलमान (मर्द हो या औरत ) को हज करना अनिवार्य है, पर इसके लिए भी कुछ नियम हैं कि किन लोगों पर हज फ़र्ज है- जो लोग ख़ुदा को खुश रखना चाहते हैं और जो हज के स्थान तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं। एक मुसलमान का बालिग़, आक़िल, आजाद होना और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना हज की अनिवार्य शर्तें हैं। अगर कोई शख्स अपाहिज या फालिज है या इतनी उम्र हो चुकी है कि (जईफी) बुढ़ापे के कारण सवारी पर बैठ नहीं सकता, ऐसे लोगों पर ये भी फजर् नहीं है कि अपने बदले किसी अन्य से हज करने के लिए कहें और स्वयं तो उन पर क़र्ज़ है ही नहीं। यदि कोई अन्धा है पर सवारी अर्थात्‌ रुपया ख़र्च करने की क्षमता है, परन्तु उसे कोई साथ नहीं मिल पाता तो उस पर न तो हज की अनिवार्यता है, न अपने बदले किसी से हज करवाना। यदि महिला हज कर रही है तो उसके साथ उसके पति का होना या किसी महरम (वो शख्स जिससे निकाह होने वाला है, जो कि आक़िल (अक्ल वाला) बालिग़ होना अनिवार्य है। ) मनुष्य को हज पर जाने से पहले अपने कर्जों को चुका दिया जाना चाहिए, गुनाहों से तौबा की जाए, नीयत में मुहब्बत हो और अत्याचारों से दूर रहता हो, जिससे लड़ाई झगड़ा हो, उससे सफ़ाई कर ले, जो इबादतें रह गई हैं, उन्हें पूरा कर ले। ख़ुद को नुमाइश, अहंकार से दूर रखें, हलाल कमाई हो। किसी नेक आदमी को हमसफ़र बनाए ताकि जहाँ वह भटके, वह बताता रहे कि सही क्या है? इस्लाम के फ़र्ज़ नमाज , रोजा और जकात की भांति 'हज' भी अत्यन्त महत्वपूर्ण फ़र्ज़ है।
प्रस्तुति : डा- शगुफ्ता नियाज़
http://hindivangmaya.blogspot.com

Monday, April 6, 2009

बाइबिल में तीर्थ का महत्व

पवित्र शास्त्र बाइबल में इसरायली जब मिस्त्र देश में बंधुर गुलाम) थे तथा राजा फिरौन के अत्याचार से पीड़ित थे, परमेश्वर ने अपने दास मूसा को नियुक्त किया कि वह उन्हें इस परतंत्रता से छुटकारा प्रदान कराएं क्योंकि यहाँ वह भौतिक एवं आत्मिक रूप से परतंत्र थे। अपने परमेश्वर यहोवा की उपासना नहीं कर सकते थे, धार्मिक बलिदान नहीं चढ़ा सकते थे। मूसा के नेतृत्व में समस्त इसरायलियों को मिस्त्र की परतंत्रता से छुटकारा प्रदान किया गया और परमेश्वर ने उन्हें प्रतिज्ञा दी कि "मैं तुम्हें उस देश में स्थापित करूंगा, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।'' लगभग १२०० ई. पू. में इसरायलियों का मिस्त्र से छुटकारा हुआ जिसे ÷निर्गमन की घटना' कहते हैं। प्रतिज्ञा के देश कनान में प्रवेश करने के पूर्व वे लगभग ४० वर्षों तक बियाबान जंगलों, नदियों, पहाड़ों से गुजरते रहे और यहीं पर उन्हें यह संदर्भ मिला की वह परदेशी (तीर्थयात्री) हैं जिन्हें महातीर्थ प्रतिज्ञा के देश में पहुँचना है, जहाँ पर वह अपने परमेश्वर यहोवा की उपासना, बलिदान, धार्मिक उत्सव इत्यादि स्वतंत्र रूप से मना सकते हैं। यहीशू के नेतृत्व में मूसा की मृत्यु पश्चात्‌ समस्त इसरायली प्रतिज्ञात देश ;च्तवउपेम संदकद्ध में पहुँचे। स्थापना पश्चात्‌ कालांतर में एक भव्य मंदिर का निर्माण राजा सुलैमान के द्वारा पवित्र नगरी यरूशलेम में किया गया तथा विशेष प्रार्थना द्वारा भव्य प्रतिष्ठा की गयी जहाँ वाचा का संदूक (मंजूबा) रखा गया। इस मंदिर में प्रत्येक यहूदी भक्त को वर्ष में एक बार 'फसह के पर्व'' के समय आना पडता था तथा बलिदान चढ़ाना, मंदिर का कर एवं अन्य धार्मिक कर्मकांड करना पड़ता था। योसेवस नामक यहूदी इतिहासकार बताते हैं कि इस समय यरूशलेम में तीर्थयात्रियों की संख्या लाखों में होती थी तथा शहर तीर्थयात्रियों से भर जाता था, क्योंकि इसराइल तथा आसपास से लोग मीलों पैदल चलकर इस महातीर्थ में आते थे।

Saturday, April 4, 2009

तीर्थ यात्रा सामूहिक प्रार्थनाओं का वृहद स्वरूप है।

यहां एक उल्लेखनीय बिन्दु यह भी है कि समूह के रूप में एकत्रित होने से व्यक्ति बाह्‌य निरंकुशता से दूर होता है जिससे धीरे धीरे उसके अंतस की निरंकुशता भी क्षीण होती है। समूह में रहने, आने जाने से व्यक्ति दूसरे की अच्छी बातों को ग्रहण करता है तथा बुरी चीजों को त्यागता है। सामूहिक प्रार्थना से सामूहिक ऊर्जा का वृहद बर्तुल विकसित होता है जिससे सभी को लाभ होता है। प्रत्येक धर्म में एक विशेष अंतराल के बाद एक जगह एकत्रित होकर पूजा करने का विधान है। यह एकत्रीकरण स्थानीय होता है लेकिन इस एकत्रीकरण का बड़ा महत्व है। यहां पर की जाने वाली सामूहिक प्रार्थनाएं सर्वशक्तिमान द्वारा आवश्यक रूप से स्वीकार की जाती हैं। ऐसा दुनिया के हर धर्म एवं मनीषियों का मानना है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर एवं गुरुद्वारों में एकत्रित होना इसका लघुरूप है, तो तीर्थ यात्रा इन सामूहिक प्रार्थनाओं का वृहद स्वरूप है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीर्थ और तीर्थ यात्रा दोनों ही मानव जीवन के अभिन्न स्वरूप हैं। इस विषय पर विभिन्न धर्माचार्यों ने अपनी अपनी धर्म पुस्तकों के आधार पर तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा से सम्बन्धित जानकारियां प्रस्तुत की हैं जिनको ठीक उसी रूप में जिस रूप में वे हमें प्राप्त हुई हैं, हमने यहां प्रकाशित किया है।

Thursday, April 2, 2009

तीर्थ यात्रा का मानव जीवन में बहुत महत्व है।

तीर्थ यात्रा का मानव जीवन में बहुत महत्व है। हिन्दुओं में कुम्भ मेलों का आयोजन, मुसलमानों में हज, इसाइयों में वैटीकन यात्रा, सिखों में गुरुस्थानों तथा बुद्ध जातकों के बिहार भ्रमण ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे तीर्थ यात्रा का महत्व दिखाई देता है। अति प्राचीन काल से मनुष्य तीर्थाटन करता आ रहा है। गंगा स्नान आदि के लिए भी विशेष पर्वों पर एकत्रित होना तथा सामूहिक रूप से स्नान करना, तीर्थ यात्रा के महत्व को दर्शाता है। आखिर क्या रखा है तीर्थ यात्रा में? लोकोक्ति है कि अपना मन चंगा तो कटौटी में गंगा। बात सही भी है कि इस देश में संत रैदास जैसे संत भी हुए हैं जिनके लिए गंगा चलकर कटौटी में आ जाती है। लेकिन हर कोई तो रैदास नहीं हो सकता जो गंगा घर घर चल पड़ें। महाराज जी कहते हैं कि तीर्थों में एनर्जी का भंडार होता है। तीर्थ वहीं बनता है, जहां कभी लम्बी साधना हुई हो या कोई विशेष प्रतिभा रही हो। जब कोई विशेष प्रतिभा कहीं निवास करती है तो वहां के वातावरण में उसकी ऊर्जा विकरित होती रहती है। उस स्थान पर आने वाले लोग भी नैतिक उन्नयन की भावना लेकर एकत्रित होते हैं। उनके विचारों से उस स्थान पर ऊर्जा का बड़ा केन्द्र विकसित हो जाता है। जिसका लाभ सामान्य जन को भी जाने पर मिलता है। यद्यपि व्यक्ति समस्त शक्तियों को अपने में समेटे है लेकिन उन शक्तियों का उपयोग हर जन को नहीं आता है। व्यक्ति कहीं भी रहकर इन शक्तियों को विकसित कर सकता है लेकिन इसके लिए उसे योग्य गुरु के सानिध्य में रहकर अत्यधिक कड़ी साधना करनी पड़ती है या भक्ति का अतिरेक विकसित करना पड़ता है। जबकि तीर्थों पर यह उसे सहज ही मिल जाता है। तीर्थ क्षेत्र एनर्जी के भण्डार होते हैं जो हर समय विकसित होते रहते हैं।

Wednesday, April 1, 2009

तीर्थयात्रा का उद्देश्य है- आध्यात्मिक विकास

तीर्थयात्रा का उद्देश्य है- आध्यात्मिक विकास और आध्यात्मिक विकास मनुष्य को आनंद प्रदान करता है। दूसरी ओर, यदि हम किसी व्यक्ति की सहायता करते हैं अथवा उसकी इच्छापूर्ति में सहायक होते हैं, तो हमें अपार सुख एवं संतुष्टि मिलती है। दरअसल, हमारे मन में सद्वृत्तियों का विकास भी तीर्थयात्रा के समान ही है, जिसे हम यहां दी गई कहानी के माध्यम से समझ सकते हैं। लक्ष्मी के जीवन का आधार थी उसकी एकमात्र पुत्री माधवी। उसकी पिता की मृत्यु होने के कारण लक्ष्मी अपनी बेटी की परवरिश के लिए दिन-रात श्रम करती। एक दिन स्कूल से घर लौटते समय माधवी बारिश में भीग गई। भीगने के कारण उसे बुखार आ गया। बुखार के कारण उसकी तबियत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही चली गई। चिंतातुर माँ मंदिर गई और ईश्वर से प्रार्थना की कि मेरी बेटी की तबियत को ठीक कर दो। मैं तीर्थयात्रा करूंगी। माधवी दो-चार रोज में भली-चंगी हो गई। उधर लक्ष्मी भी अपने वचनानुसार तीर्थयात्रा पर जाने की तैयारी में लग गई। तीर्थयात्रा पर जाने से एक दिन पहले रात में लक्ष्मी को अपने पड़ोस के घर से सिसकने की आवाज सुनाई दी। लक्ष्मी वहाँ गई, तो देखा कि उसकी पड़ोसन राधा रो रही है। लक्ष्मी ने उससे रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया कि उसके पति कई दिनों से बीमार हैं। डॉक्टर ने कई टेस्ट और एक्सरे कराने को कहा है, पर घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है। लक्ष्मी ने राधा की सारी बात सुन कर कहा कि बहन घबराओ नहीं, ईश्वर सब ठीक कर देंगे। वह घर गई और तीर्थयात्रा पर जाने के लिए जो पैसे रखे थे, लाकर राधा के हाथ पर रख दिए। राधा ने लक्ष्मी से कहा कि तुम तीर्थयात्रा पर न जाकर यह पैसे मुझे दे रही हो! लक्ष्मी ने कहा कि राधा तीर्थयात्रा तो फिर हो जाएगी! लेकिन इस समय उससे ज्यादा जरूरी है तुम्हारे पति का इलाज, इसलिए तुम अपने पति का इलाज कराओ। वास्तव में, किसी व्यक्ति की मदद या सेवा से बढ़ कर कोई तीर्थयात्रा नहीं होता और जिसने इस 'सत्य' को जान लिया, उसका मन ही सबसे बड़ा तीर्थ बन जाता है।