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Saturday, September 20, 2008

वैराग्य : विरक्ति ही शांति का मूल है

बलि अत्यंत पराक्रमी था। उसने रावण जैसे बलवान शासक को भी पराजित किया था। लेकिन इंद्र ने बलि को परास्त कर उसकी समस्त संपत्ति उससे छीन ली थी। शुक्राचार्य ने स्वर्ग-विजय कें लिए बलि से एक यज्ञ कराया और इसके परिणामस्वरूप बलि ने वरदान प्राप्त करके देवताओं को समर में हरा दिया। उसने तीनों लोक जीत लिए। वह दीर्घ काल तक सुखों का भोग करता रहा। लेकिन सांसारिक भोगों एवं शक्तिशाली होने के अहंकार से उसके पुण्य क्षीण होने लगे। बलि का मन अशांत रहने लगा। एक दिन वह अपने पिता विरोचन के पास पहुंचा। विरोचन ने बलि से पूछा, "अब तो तुम्हारा मन पूर्ण शांति एवं संतोष से परिपूर्ण होगा। अब तो तुम्हारी कोई आकांक्षा शेष नहीं है?'' बलि ने पिता के प्रश्न का जबाब देते हुए कहा, "पिताश्री, मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि जिन भोगों और सांसारिक वस्तुओं को मैं सुख का कारण समझता था, उन्होंने ही मेरे मन को पग-पग पर अशांत बना रखा है। मैं अभी तक भ्रम के संसार में जी रहा था। इसलिए मुझे ऐसी कोई साधना बताइए, जिससे दुःख और सुख का अंत हो जाए।'' विरोचन ने बलि से कहा, "वत्स, धर्मशास्त्रों के अनुसार, भोग से अशांति बढ़ती है और उनसे चिर विरक्ति होने पर ही मन को असली शांति मिलती है। विरक्ति और संतोष ही प्रभु-कृपा प्राप्ति एवं मोक्ष का साधन है।'' बलि ने पिता का उपदेश सुना, तो उसका विवेक जाग उठा। उसने राजपाट त्यागकर स्वयं को मोक्ष साधना में लगा दिया।

प्रस्तुति : धनश्याम गिरि http://www.rudragiriji.net

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