हुजूर साहब की मृत्यु के लगभग २०० वर्षों के बाद सूफी धर्म व दर्शन प्रकाश में आया। सूफी वह है जिसे किसी चीज की तलब तंग नहीं करती और न किसी चीज की जरूरत और उसका अभाव उसे तंग करता है। सूफ़ियों ने खुदा को हर वस्तु पर प्रमुखता दी है।
सूफियों के नजदीक (वैराग्य) खानकाही व्यवस्था का जो महत्व है, उससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता। खानकाहें इसी के प्रशिक्षण के लिए होती थीं।
हजरत मुहम्मद के समय एक चबूतरा बना हुआ था। इसे सुफ्फ़ कहते थे। यह स्थान उन लोगों के लिए मुख्य था, जो साधना में लगे रहते, शिक्षण प्रशिक्षण में व्यस्त रहते और जिनका काम यह था, कि सीखें और सिखाएं। ये लोग दुनिया के मामलों से अलग होकर आत्म संयम और मनोनिग्रह के कार्य करते और उसी की दीक्षा लेते। सादा जीवन और उच्च विचार वाले ये लोग, प्रेम का संदेश प्रसारित करने वाले ये उद्गम स्रोत, ही सूफियों की खानकाह का रूप धारण करने का कारण बने हैं।
सुफ्फ़ और खानकाह में कितनी एकरूपता है इसका उल्लेख सुहारावर्दी ने इस प्रकार किया है, कि "वह हर समय अपनी खानकाह में रहते थे और उसकी ख़बरगीरी करते थे।''
खानकाह सूफ़ियों की ऐसी जगह है जहाँ बूढ़े, जवान सभी होते हैं। बूढ़ों को ख़ुदा की खद के लिए एकान्त चाहिए होता है, जो खानकाह में मिल जाता है। जवान के स्वभाव से एकान्तवास अगर मेल नहीं खाता तो वहाँ रहने से उसे ऐसा प्रशिक्षण मिल जाता है कि धीरे धीरे वह भी एकान्तवास में रुचि लेने लगता है।
डॉ. रामपूजन तिवारी के अनुसार "खनकाह में रहने वाली तीन श्रेणियाँ थीं।
१. अहले खिदमत, २. अहले सोहबत और ३. अहले खलवत।
इसमें पहली श्रेणी के लोग वहाँ सेवा धर्म का पालन करते और इस प्रकार से जीवन यापन करते कि वे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होते रहें और दूसरी श्रेणी के योग्य बन जाएं। जो नयी उम्र के हैं उनके लिए सोहबत की आवश्यकता है और बूढ़ों के लिए ख़लवत ;एकांत सेवनद्ध की आवश्यकता समझी जाती है।
उत्तरी भारत में अजमेर से लेकर बंगाल तक खानकाहों की पूरी एक पट्टी विकसित हुई जहाँ से धर्म प्रचारक, सूफ़ी प्रशिक्षण प्राप्त कर मीलों तक फैल जाते, छोटी छोटी ख़ानकाहें बनाते और अपने उत्तम चरित्र का विकास करते।
कालांतर में ये ख़ानकाहें अपनी आत्मा खोती चली गयीं। अब तो ये खानकाहें किसी पीर की समाधियाँ हैं या ऐश परस्ती के अड्डे। अब अन्य हर वस्तु की तरह उनमें भी विधिवत ह्रास आ चुका है
प्रस्तुति : डॉ. शगुफ्ता नियाज+ प्राध्यापिका, वीमेन्स कालिज, ए.एम.यू. अलीगढ़
सूफियों के नजदीक (वैराग्य) खानकाही व्यवस्था का जो महत्व है, उससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता। खानकाहें इसी के प्रशिक्षण के लिए होती थीं।
हजरत मुहम्मद के समय एक चबूतरा बना हुआ था। इसे सुफ्फ़ कहते थे। यह स्थान उन लोगों के लिए मुख्य था, जो साधना में लगे रहते, शिक्षण प्रशिक्षण में व्यस्त रहते और जिनका काम यह था, कि सीखें और सिखाएं। ये लोग दुनिया के मामलों से अलग होकर आत्म संयम और मनोनिग्रह के कार्य करते और उसी की दीक्षा लेते। सादा जीवन और उच्च विचार वाले ये लोग, प्रेम का संदेश प्रसारित करने वाले ये उद्गम स्रोत, ही सूफियों की खानकाह का रूप धारण करने का कारण बने हैं।
सुफ्फ़ और खानकाह में कितनी एकरूपता है इसका उल्लेख सुहारावर्दी ने इस प्रकार किया है, कि "वह हर समय अपनी खानकाह में रहते थे और उसकी ख़बरगीरी करते थे।''
खानकाह सूफ़ियों की ऐसी जगह है जहाँ बूढ़े, जवान सभी होते हैं। बूढ़ों को ख़ुदा की खद के लिए एकान्त चाहिए होता है, जो खानकाह में मिल जाता है। जवान के स्वभाव से एकान्तवास अगर मेल नहीं खाता तो वहाँ रहने से उसे ऐसा प्रशिक्षण मिल जाता है कि धीरे धीरे वह भी एकान्तवास में रुचि लेने लगता है।
डॉ. रामपूजन तिवारी के अनुसार "खनकाह में रहने वाली तीन श्रेणियाँ थीं।
१. अहले खिदमत, २. अहले सोहबत और ३. अहले खलवत।
इसमें पहली श्रेणी के लोग वहाँ सेवा धर्म का पालन करते और इस प्रकार से जीवन यापन करते कि वे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होते रहें और दूसरी श्रेणी के योग्य बन जाएं। जो नयी उम्र के हैं उनके लिए सोहबत की आवश्यकता है और बूढ़ों के लिए ख़लवत ;एकांत सेवनद्ध की आवश्यकता समझी जाती है।
उत्तरी भारत में अजमेर से लेकर बंगाल तक खानकाहों की पूरी एक पट्टी विकसित हुई जहाँ से धर्म प्रचारक, सूफ़ी प्रशिक्षण प्राप्त कर मीलों तक फैल जाते, छोटी छोटी ख़ानकाहें बनाते और अपने उत्तम चरित्र का विकास करते।
कालांतर में ये ख़ानकाहें अपनी आत्मा खोती चली गयीं। अब तो ये खानकाहें किसी पीर की समाधियाँ हैं या ऐश परस्ती के अड्डे। अब अन्य हर वस्तु की तरह उनमें भी विधिवत ह्रास आ चुका है
प्रस्तुति : डॉ. शगुफ्ता नियाज+ प्राध्यापिका, वीमेन्स कालिज, ए.एम.यू. अलीगढ़
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