एक बार एक व्यक्ति के मन में विचार आया कि भगवान से कैसे मिला जाए? यहाँ इस घर में पड़े-पड़े इन्तजार करता रहा तो शायद पूरी आयु यूँ ही बीत जाए। ऐसा विचार आने पर उसे लगा कि "घर से निकल कर भगवान को खोजा क्यूँ न जाए? सुना है ऊँचे पर्वतों पर भगवान आसानी से मिल जाते हैं। क्यों न वहीं चलूँ।'' ऐसा निश्चय कर उसने यात्रा की तैयारी शुरू करी। अब वह घर की जो वस्तु देखता उसे लगता इसकी तो बड़ी आवश्यकता है या ये कितनी सुन्दर है या ये किसी की याद दिलाती है वगैरह-वगैरह मतलब ये कि उसे हर सामान उपयोगी व प्रिय लगने लगा सो उसने कुछ मजदूरों को बुलाकर उनसे अपने साथ-साथ सामान लेकर चलने को कहा। अब घर के ढेर सारे सामान के साथ उसकी यात्रा प्रारम्भ हुई।
राह में एक सन्त ने उसे पर्वतों की चढ़ाई इतने सामान के साथ चढ़ते देखा तो कारण पूछ बैठे। इस पर उसने सन्त को बताया कि वह भगवान से मिलने जा रहा है। सन्त ने कहा इतना सामान लेकर चढ़ाई चढ़ोगे तो बहुत कष्ट होगा और समय भी अधिक लगेगा। हो सकता है कि इतनी बाधाएं हों कि तुम वहाँ पहुँच न पाओ। अब वह व्यक्ति बोला ठीक है सामान यहीं आपके पास छोड़ देता हूँ। फिर वो जैसे ही आगे बढ़ने लगा तो सन्त ने उसे रोका और बोले "अब कहाँ जा रहे हो? किससे मिलने जा रहे हो? अब तो तुम स्वयं ही भगवद्स्वरूप हो गए हो। यह सामान का मोह ही तो बाधा था, अब वह बाधा कटते ही भगवान तुम्हें कहीं भी सुलभ हो गए हैं।'' मन में अगर मोह, कामना, वासना पड़ी है तो भक्ति नहीं हो सकती। ज्ञान तथा वैराग्य से जब मोह बन्धन करता है तभी भक्ति हो पाती है, और तभी मुक्ति मिलती है। किसी ने सही ही कहा है-
"चाह, चमारी, चूड़ी............................. तू तो पूरन ब्रह्म था, यदि चाह न होती बीच।''
3 comments:
अरे वाह कमाल कर दिते ओ-----
सही लिखा।
परम जीत द्वय को धन्यबाद
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