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Tuesday, September 16, 2008

वैराग्य का अर्थ

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

सच्चिदानन्दघन वह परब्रह्म सब प्रकार से पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण ही है क्योंकि उस पूर्ण (परब्रह्म) से ही यह पूर्ण उत्पन्न हुआ है। पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण बच रहता है। परब्रह्म की पूर्णता से ही जगत पूर्ण है। जगत में जो भी देखने सुनने में आ रहा है, वह उसी सर्वशक्तिमान, सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वाधिपति प्रभु से ओतप्रोत है। स्वयं मनुष्य भी परमात्मा से ओत प्रोत है, उसकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, आत्मा सभी में उसी परमात्मा का वास है, जो सर्वथा पूर्ण है। अतः मनुष्य प्रकृति से ही सर्वथा परिपूर्ण है। सत्‌ चित्‌ आनन्द से लबालब भरा हुआ। परंतु अविद्या के आवरण ने उसके ज्ञान को ढक रखा है। वह यह सत्य भूल गया है कि वह पूर्ण है। उसे पूर्ण होने के लिए जगत के अन्य पदार्थों या व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं। यही विस्मरण उसे भौतिक जगत में मोह, ममता, मात्सर्य के बंधन में जकड़ देता है। ऐसा, जगत के व्यक्ति, वस्तु, पदार्थों के मोह में जकड़ा जीव, भगवान के सम्मुख कैसे
हो सकता है? नहीं, ऐसा कैसे सम्भव है, कि व्यक्ति अपनी परछाई और सूर्य को एक साथ देख सके।

"अरे मूरख! यह समझ कि परछाई का अस्तित्व सूर्य से है। तो सत्य तो सूर्य ही है, जगत तो वही है जो परमात्मा के अंश मात्र से उपजा है। जब वह अंश इतना भासता है, आकर्षित करता है तो सोच उस असीम में कितना आनन्द और आकर्षण होगा। पर वह मिलेगा तो तब, जब तू, जगत परछाई का पीछा छोड़कर परमात्मा सूर्य के सन्मुख होगा। तभी तो हद को छोड़, बेहद का नजारा होगा। तुच्छता को त्याग विराटत्व को पाना है, तो संसार से तोबा कर अर्थात्‌ वैराग्य ले। ऐसा मनीषियों ने कहा है।

वैराग्य अर्थात्‌ न 'वैर' हो न 'राग' हो। संसार में अनासक्त, निर्लेप, न्यारे रहकर बने रहना वैराग्य है। वैराग्य के लिए घर-बार, पति-पत्नि किसी को भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ हैं वहीं वैराग्य ले लें। यह शास्त्रों में बताए गए 'साधन चतुष्टय' अर्थात्‌ भगवत्‌ प्राप्ति के चार साधनों में से एक महत्वपूर्ण साधन है। भक्तिमार्ग पर भी जब भगवद् प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है तो संसार दीखता ही नहीं सिर्फ प्रभु रह जाते हैं- "जा को लागे प्र्रेम रोग, और सूझे संसार। ता को यूँ कर जानिए, झूठा, गप्पी, कपटी और मक्कार॥'' वैराग्यवान ही ज्ञान, भक्ति तथा मुक्ति का सच्चा अधिकारी होता है। क्योंकि कोई चाहे कितना धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, अच्छे कुल-परिवार से युक्त हो भगवान इससे सन्तुष्ट नहीं होते। भगवान तो जब बुलाते हैं, तो ये सब छुड़ाकर ले जाते हैं। चाहे जीते जी, चाहे मृत्योपरान्त-

"कंकड़ चुनि-चुनि महल बनाया, लोग कहें घर मेरा। ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा॥

महल बनाया किला चुनाया, खेलन को सब खेला। चलने की जब बेला आई, सब तजि चला अकेला॥

'' ये दुनियाँ ही दर्शन का मेला है परंतु इसे समझने वाले अलबेले ग्राही कहाँ मिलते हैं? समझ नहीं आती, कि अनासक्त हुए बिना, हम अपने तन, मन, धन, समय सबका दुरुपयोग करते हैं- सबको अपने और अपने वालों की इच्छा पूर्ति के लिए भस्मीभूत किए जा रहे हैंऋ जबकि इनका असली अधिकारी तो है परमात्मा। ऐसे में मनुष्य की दशा शोचनीय है। समय रहते करने वाला काम नहीं कर रहा, बाद में पछताएगा। अन्त में सिर्फ भाव ही साथ जाऐंगे। वैराग्य तो लोगों को होता हैऋ जब श्मशान में अपने किसी 'प्रियजन' को फूँकने ;अन्तिम क्रिया करनेद्ध जाते हैं। कहेंगे "जीवन का क्या भरोसा' 'कुछ भी साथ नहीं जाता' आदि-२''। पर फिर कुछ मोबाइल बजेंगे, कुछ काम याद आऐंगे और निकल पड़ेंगे अन्धी दौड़ पर। यह मसानी वैराग्य है, आया और गया।

वैराग्य हो तो शुकदेव मुनि जैसा, संसार के मोह में फँसने के भय से माँ के गर्भ से पन्द्रह वर्षों तक बाहर ही नहीं आए। फिर जन्म लेते ही चल पड़े सन्यास लेकर जंगल की ओर। पिता व्यास मुनि पुकारते ही रह गए। ऐसे शुकदेव मुनि जिन्हें आता देखने पर भी स्नान करती स्त्रियों को अपना तन ढकने की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी, क्योंकि उनकी दृष्टि शरीर पर जाती ही नहीं थी। वह तो सर्वआत्मा भाव में ही जिए। काम, आसक्ति, ममता, मोह आदि विकारों से सर्वथा मुक्त थे वे। ऐसा हो पाना तो आज थोड़ा कठिन है, परन्तु कबीर का उदाहरण समझा जा सकता है। जुलाहे थे उनके लिए सूत, कपड़ा, करघा, वे स्वयं तथा ग्राहक सभी राम थे। एक पल भी राम को ना भूले, ऐसा व्रत था उनका। पहला ग्राहक जो दे जाए वही लेकर संतुष्ट रहते। भगवान आए थे जो दे गए, प्रसाद है। तन, मन, धन सब शुद्ध हो, तब ही भगवान अपनाते हैं।

संसार में जब आसक्ति हो तो...... वहाँ ऐसा नहीं कि... प्रेम और सुख नहीं। प्रेम और सुख है तभी तो मन वहाँ जाता है। प्रेम और सुख के साथ-साथ घृणा और दुःख भी है यह एक च्ंबांहम है। जिसे चुना तो प्रेम-सुख और घृणा-दुःख दोनों को ही ग्रहण करना पड़ेगा। परन्तु वैराग्य अनासक्ति है, तो वहाँ सिर्फ प्रेम है और सुख है। घृणा और दुःख को कोई स्थान नहीं। क्योंकि यहाँ आशाऐं, आकांक्षाऐं, मोह, ममता नहीं सिर्फ दिव्य प्रेम है। जो सिर्फ देना जानता है, सेवा करना जानता है, निष्काम भाव से। सूक्ष्म वासनाऐं भी ज्ञान और भक्ति में रोड़े अटकाती हैं। ये है मान, बड़ाई, ईर्ष्या। वैराग्य के नाम पर वेश लेकर साधु सन्यासी बन जाने वाले भी फिर कहीं न कहीं किसी मठ-घाट से बंध जाते हैं। यही नहीं वहाँ भी एक तरह का संसार है ही जहाँ मान, बड़ाई, ईर्ष्या का साम्राज्य है-

"कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान, बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह॥''

यह सूक्ष्म वासनाऐं उसके ज्ञान भक्ति को दीमक की तरह चाट जाती हैं-

"मोटी माया सब तजें, झीनी तजी न जाए। मान बड़ाई ईर्ष्या, सबको झीनी खाए॥''

अंत में फिर वहीं आते हैं कि मनुष्य तो पूर्ण है। उसे पूर्णता को प्राप्त करने के लिए अन्य किसी व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ की आवश्यकता नहींऋ बस वह प्रार्थना करे कि हे नाथ, एक पल भी आपको ना भूलूँ। सच्चा साधक कहता है-

"हे दीनबन्धु, दीनानाथ! म्हारी विनती सुनो।

म्हारे तो शत्रु घृणाजी, भक्ति करन न देत।

काम, क्रोध, मद, लोभ, म्हारी सुमति को हर लेत।

म्हारी विनती सुनो। ''

प्रस्तुति : श्रीमती कविता उपाध्याय

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