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Monday, September 8, 2008

शुल्ब सूत्र (भारत में पाइथेगोरियन त्रिक)

ज्यामिति का उद्भव भारत में यज्ञ की बेदी का निर्माण करने के संदर्भ में हुआ था। शुल्बसूत्र भारत की प्राचीन रचनाएँ हैं - जो यज्ञ के लिए वेदियों के निर्माण का वर्णन करती हैं। मूल रूप से ये ज्यामितीय रचनाओं पर केंद्रित हैं। शुल्ब का अर्थ हैं नापना अथवा नापने की क्रिया। ये शुल्बसूत्र अपने लेखकों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें प्रमुख हैं -१। बौधायन का शुल्बसूत्र २। आपस्तम्ब का शुल्बसूत्र३. कात्यायन का शुल्बसूत्र

बौधायन का शुल्बसूत्र : - इनमें बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय १२०० से ८०० ई। पू. माना गया है। बौधायन निम्न त्रिकों का उल्लेख करते हैं-

अपने एक सूत्र में बौधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-

दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जुः पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोती.

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग-अलग बनाती हैं। यहीं तो पाइथेगोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथेगोरस के पहले से थी। दरअसल इस प्रमेय को बौधायन-पाइथेगोरस प्रमेय कहा जाना चाहिए। प्राचीन भारतीय गणित की चर्चा बिना शुल्ब सूत्रों के अधूरी रहेगी। शुल्ब सूत्र वैदिक समय (बण्१५०० दृ बण् २००ठब्द्ध के साहित्य से सम्बन्ध रखते हैं। शुल्ब सूत्र जैसा कि नाम से स्पष्ट है नापने के नियम। यह बड़ा ही रोमांचित है कि लम्बाई रस्सी से नापी जाती थी इसलिए शुल्ब शब्द को रस्सी के लिए प्रयोग होने लगा। सूत्रों का प्रादुर्भाव वेदों से है। वे क्राइस्ट के जन्म से कम से कम आठ नौ शताब्दी पूर्व ज्ञात थे। बोधायन प्रथम ज्यामितिज्ञ हुए, जिन्होंने ज्यामिति ज्ञान को वैदिक यज्ञों की वेदियों के निर्माण के संदर्भ में विकसित किया था। उन्होंने शुल्ब सूत्रों के माध्यम से रेखा, पृष्ठ, मापन यन्त्र तथा मात्रक का अन्वेषण किया था। इनके द्वारा रचित शुल्ब साहित्य में मापन यन्त्र को रज्जु भी कहा गया है तथा कई स्थानों पर रेखा को रज्जु कहा गया है। ज्यामितिक साहित्य मूलतः ऋग्वेद से उत्पन्न हुआ है जिसके अनुसार अग्नि के तीन स्थान होते हैं- वृत्ताकार वेदी में गार्हपत्य, वर्गाकार में अंह्यान्या तथा अर्धवृत्ताकार में दक्षिणाग्नि। तीनों वेदियों में से प्रत्येक का क्षेत्रफल समान होता है। अतः वृत्त वर्ग एवं कर्णी वर्ग का ज्ञान भारत में ऋग्वेद काल में था। इन वेदियों के निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न ज्यामितीय क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। जैसे किसी सरल रेखा पर वर्ग का निर्माण, वर्ग के कोणों एवं भुजाओं का स्पर्च्च करते हुए वृत्तों का निर्माण, वृत्त का दो गुणा करना। इस हेतु इनका मान ज्ञात होना जरूरी था।बोधायन ने तथा कथित पायथागोरस प्रमेय को स्वतन्त्र रुप से खोजा था जिसके अनुसार किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पद्यथक-पद्यथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है। (बो। सू० १-४८)शुल्ब सूत्रों में पाइथागोरस प्रमेय का वर्णन तो है किन्तु उसकी व्युत्पत्ति तथा सद्धि करके न ही दिखाया गया है जब कि यूक्लिड एलिमेंट में इसे सिद्ध करके बताया गया है । पाइथागोरस प्रमेय का पुनः नामकरण करके शुल्ब प्रमेय रखना चाहिये।प्राचीन भारतीय गणितज्ञों को च तथा झ्२ जैसे नम्बरों का अच्छा ज्ञान था। काफी सीमा तक शुद्ध इनके मान बिना प्रमाणित किये हुए शुल्ब सूत्रों में वर्णित है। बौधायन तथा अपस्तम्भ सूत्रों का सम्बन्ध कृद्यण यजुर्वेद से है। अपस्तम्भ सूत्र प्रथम का वर्णन करते है जो मूलतः ग्रीक होने के कारण डियोफेन्टीन कहलाते है। ग्रीक में खोज बहुत बाद में हुई अतः इनकी पहचान मूल रुप से शुल्बसूत्रों से ज्यादा उपयुक्त होगी।आजकल वैदिक काल में जिन खोजों की चर्चा है उनमें गिनती लिखने की दच्चमूल विधि तथा शून्य की खोज प्रमुख है। यजुर्वेद संहिता, तेतरीय संहिता, वज्जसनेइ संहिता में बड़ी संख्या को दशमलब विधि में दस की घात जैसे १०१९ के रुप में दर्शाया गया है। गिनती लिखने में अंक की स्थिति को क्रम से लिखा गया है । २७ को सप्तविंच्चती अर्थात बीस और सात लिखा जाता था। संख्या को दस की पूर्ण संख्या के नजदीकी संख्या से घटाकर भी लिखा जाता था जैसे ९७२ को अठाइस कम एक हजार कहा जाता था। इस संदर्भ में नोबेल पुरुस्कार विजेता भौतिकी विद््‌ अबदुस सलाम को उद्त करना उचित होगा जिन्होंने बताया कि भारतीय अविष्कार किस तरह एच्चिया और यूरोप में फैले।करीब बारह सौ वर्ष पूर्व अब्दुल्ला अल मनसूर ने अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगोष्ठी का उद्घाटन, अपनी नई राजधानी बगदाद की स्थापना के समय किया। इस संगोष्ठी में ग्रीक, नेस्टोरियन बैजेन्टाइन, यहूदी तथा हिन्दू विद्वानों को आमंत्रित किया गया। अरब देच्च में इस पहली अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी से इस्लाम से जुड़ी विज्ञान का विधिवत प्रादुर्भाव हुआ। इस संगोष्ठी का मुख्य विषय खगोल विज्ञान था। अलमनसूर उस समय उपलब्ध खगोलीय तालिकाओं से अधिक शुद्ध तालिकाओं में रुचि रखता था। उसने पृथ्वी की अधिक सही एवं शुद्ध परिधि ज्ञात करने का आदेच्च उस संगोष्ठी में दिया। किसी को अहसास नहीं था कि उस समय एक ऐसा पेपर पढ़ा गया जिसने गणितीय सोच को एक नई दिच्चा दी। यह पेपर एक हिन्दु खगोलवेत्ता कनकाह ;ज्ञंदांीद्ध ने हिन्दू अंक तथा गिनती के बारे में पढ़ा जो उस समय तक भारत से बाहर ज्ञात नहीं थे।

9 comments:

Anonymous said...

Oh Really!!!!!

anil said...

payathagoras ke pramey ka nam bodhayan ka pramey likhana chahiye

anil said...
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anil said...

payathagoras ke pramey ka nam bodhayan ka pramey likhana chahiye

anil said...

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anil said...

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anil said...

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Unknown said...

Please bodhayan prameya ko explain kar ke 9983576800 par bhej deejiyega taki pithyagoras problam se chutti mile....
Please bhejiye..

Unknown said...

ji haan ye satya h aur esi kai bate h jo hm bhartiya nhi jante...youtube pe ek video hai rajiv dixit ji ki ......unhone islka vistar se varnan ki ya h.....kripya ise zrur dekhee