आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, September 25, 2008

सच्चा हीरा तो आप हैं

बगदाद के खलीफा हसन एक खुदापरस्त व रहमदिल इंसान थे। उनका सेवक हाशिम उनके संपर्क में आने के बाद अनेक दुर्गुणों का त्याग कर नेकदिल इंसान बन गया था। वह खलीफा के साथ एक फकीर के पास सत्संग के लिए जाया करता था। फकीर उपदेश में कहा करते थे कि जो व्यक्ति हराम की कमाई तथा पराये धन के लालच से बचा रहता है, वह हमेशा सुखी रहता है। एक बार खलीफा बहुत से सेवकों (गुलामोंद्) के साथ बग्घी में बैठकर कहीं जा रहे थे। अचानक घोड़ा फिसल गया और खलीफा के हाथ की थैली झटका लगने के कारण दूर जा गिरी। उस थैली में कीमती हीरे-पन्ने भरे हुए थे, जो सड़क पर बिखर गए। खलीफा ने गुलामों से कहा, "तुम सब तुरंत हीरे-पन्ने बटोर लो। बदले में सबको इनाम दिया जाएगा।' सभी गुलाम हीरे-पन्ने बटोरने में लग गए। खलीफा ने देखा कि हाशिम उनके पास ही खड़ा है। इनाम के लालच में वह हीरे-पन्ने बटोरने में नहीं जुटा। खलीफा ने हाशिम से पूछा, "तुम हीरे-पन्ने क्यों नहीं बटोर रहे हो?' हाशिम ने जबाब दिया, "सबसे कीमती हीरा तो मेरे बिलकुल पास खड़ा है। आप मेरे लिए हीरा ही नहीं, पारस हैं। आपने तमाम दुर्गुणों से मुक्ति दिलाकर मुझे सच्चा इंसान बना दिया है। फिर, मैं हराम की कमाई इनाम में लेकर पाप का भागी क्यों बनूं?' बादशाह उसकी नेकनीयती से बेहद खुश हुए। उन्होंने उसे सेवक से सलाहकार बना दिया।

प्रस्तुति : मानव

Wednesday, September 24, 2008

अब किससे मिलाने जाते हो

एक बार एक व्यक्ति के मन में विचार आया कि भगवान से कैसे मिला जाए? यहाँ इस घर में पड़े-पड़े इन्तजार करता रहा तो शायद पूरी आयु यूँ ही बीत जाए। ऐसा विचार आने पर उसे लगा कि "घर से निकल कर भगवान को खोजा क्यूँ न जाए? सुना है ऊँचे पर्वतों पर भगवान आसानी से मिल जाते हैं। क्यों न वहीं चलूँ।'' ऐसा निश्चय कर उसने यात्रा की तैयारी शुरू करी। अब वह घर की जो वस्तु देखता उसे लगता इसकी तो बड़ी आवश्यकता है या ये कितनी सुन्दर है या ये किसी की याद दिलाती है वगैरह-वगैरह मतलब ये कि उसे हर सामान उपयोगी व प्रिय लगने लगा सो उसने कुछ मजदूरों को बुलाकर उनसे अपने साथ-साथ सामान लेकर चलने को कहा। अब घर के ढेर सारे सामान के साथ उसकी यात्रा प्रारम्भ हुई।

राह में एक सन्त ने उसे पर्वतों की चढ़ाई इतने सामान के साथ चढ़ते देखा तो कारण पूछ बैठे। इस पर उसने सन्त को बताया कि वह भगवान से मिलने जा रहा है। सन्त ने कहा इतना सामान लेकर चढ़ाई चढ़ोगे तो बहुत कष्ट होगा और समय भी अधिक लगेगा। हो सकता है कि इतनी बाधाएं हों कि तुम वहाँ पहुँच न पाओ। अब वह व्यक्ति बोला ठीक है सामान यहीं आपके पास छोड़ देता हूँ। फिर वो जैसे ही आगे बढ़ने लगा तो सन्त ने उसे रोका और बोले "अब कहाँ जा रहे हो? किससे मिलने जा रहे हो? अब तो तुम स्वयं ही भगवद्स्वरूप हो गए हो। यह सामान का मोह ही तो बाधा था, अब वह बाधा कटते ही भगवान तुम्हें कहीं भी सुलभ हो गए हैं।'' मन में अगर मोह, कामना, वासना पड़ी है तो भक्ति नहीं हो सकती। ज्ञान तथा वैराग्य से जब मोह बन्धन करता है तभी भक्ति हो पाती है, और तभी मुक्ति मिलती है। किसी ने सही ही कहा है-

"चाह, चमारी, चूड़ी............................. तू तो पूरन ब्रह्म था, यदि चाह न होती बीच।''

Tuesday, September 23, 2008

जीवन तो धर्म का जीवन है

जीवन तो धर्म का जीवन है, कर्मों का बन्धन है।

धारा कब दूर नदी से, ईश्वर कब दूर खुदी से॥

संयम कब दूर हदी से, कब जीव है दूर गति से।

जीवन......................................

जीवन के सफर में जानें कितने मकाम आते हैं।

कितने आँसू दे जाते, कितने बहार लाते हैं॥

प्यारे प्यारे दुःख से, हँसते रोते मुखड़ों से।

दिल के हंसीन टुकड़ों से खामोश खिले अधरों से॥

जीवन....................................

दामन में कभी काँटों से जीवन को सआना होगा।

पतझड़ में बसा दिल अपना कलियाँ को भुलाना होगा॥

लहरों को बनाकर कस्ती, हर क्षण तेरी याद की मस्ती।

भूले न 'रुद्र' तेरी भक्ति, तेरे चरणों सी हस्ती॥

जीवन.........................

Monday, September 22, 2008

कर्म करो तो भगवान दूर नही

भटके हम भगवान से नहीं, अपने फ़र्ज़ से भटक गए हैं। हम भगवान से दूर नहीं हुए हैं, अपने-अपने फ़र्ज़ को भूल गए हैं। इसलिए उससे दूर हो गए ऐसा अनुभव करते हैं। बस फ़र्ज़ को पकड़ लें, वो तो हैं ही हमारे पास में। अपने कर्म को करो, भगवान दूर नहीं हैं। ब्रह्मा ने तप किया। भगवान ने उनके हृदय में दर्शन देकर ब्रह्मा को आदेश दिया कि मेरा ध्यान करते हुए सृष्टि की रचना करो।

ब्रह्मा ने अविद्यादि पाँच वृत्तियों को उत्पन्न किया- सनकादि रिषि उत्पन्न किए, जो सन्यासी हो गए। क्रोध उनके भौंहों के बीच से उत्पन्न हुआ, लाल और नीले रंग के रूप में जिससे रुद्र भगवान प्रकट हुए। रुद्र बोलते हैं- कम्पन को, ध्वनि को। जानते हो दुनियाँ क्या है? एक कम्पन है। जिन्दगी क्या है? कम्पन है। कम्पन है तो जीवन है, नहीं तो जीवन खत्म हो गया। कोई भी चीज खत्म नहीं होती। कम्पन से उत्पन्न होती है, कम्पन से ही समाप्त हो जाती है। कम्पन हर समय, हर जगह है। कम्पन ही धरती में, गगन में, वायु में, खाली स्थान में भी है। इसलिए खाली जगह छोड़ना धर्म है। जगह को भरना धर्म नहीं है। अपने दिमाग को जितना खाली रखोगे, उतने ही धर्मात्मा होते जाओगे। यही रुद्र भगवान का कहना है। जगह को खाली नहीं छोड़ोगे तो रोओगे, पछताओगे। झगड़ा किसका? जगह को भरने, पकड़ने का ही तो झगड़ा है। कोई कुर्सी चाहता है, कोई जमीन, कोई मकान को जकड़ना चाहता है, पकड़ना चाहता है। इसी से सारी क्लेष है।

साधु कौन है? जिसने किसी को पकड़ा हुआ - जकड़ा हुआ नहीं है। जो किसी से जकड़ा हुआ नहीं है, वही साधु है और नहीं तो स्वादु है। तीन चीजों के लिए रोता है आदमी- एक नाम के लिए, एक जमीन के लिए, एक ब्याह के लिए। तीन ही तरह के रोने हैं। रुद्र भगवान भी रोए, बोले मुझे नाम दो, जमीन दो और मेरा ब्याह करो। तो उन्हें ग्यारह नाम दिए गए, ग्यारह स्थान दिये और ग्यारह शक्तियाँ दी गईं। जमीन के लिए जो रो रहा है वह साधु नहीं है, मान के लिए या स्त्री के लिए रो रहा है वो भी साधु नहीं। जिसने नाम, जमीन और स्त्री तीन चीजों की पकड़ छोड़ दी, वह सन्त हो गया। ब्रह्मा जी ने देखा कि इनकी सृष्टि तो आपस में झगड़ा कर रही है, तो बोले "बेटा! जिस घर में झगड़ा हो, वह घर छोड़ देना चाहिए।'' तो शमशान में बैठ गए और आत्म चिन्तन करने लगे। फिर ब्रह्मा जी ने मानसी सृष्टि की। जिसमें वाणी की देवी सरस्वती उत्पन्न हुईं। अपनी मानसी पुत्री पर ब्रह्मा जी मुग्ध हो गए, मोहित हो गए। सरस-रसीली.... सरस्वती पर। ब्रह्मा कहते हैं-बुद्धि को।

बुद्धि अगर रसीली बातों में घूमी हुई है, तो समझो बर्बाद है। जिन बातों से रस टपकता है, उनमें बुद्धि रत हो जाए तो बुद्धि का नाश होता है। जिन गीतों में से रस टपकता ह,ै उनसे बुद्धि का नाश होता है और आज कल जो आदमी फोन लगाकर या माइक लगा कर या कैसे भी रसीले, स्वाद-स्वाद के गीत सुनते हैं, उनमें बुद्धि मिलेगी ही नहीं। बुद्धि वो जो उलझे हुए विषय को सुलझाए और आजकल का आदमी.... जिसमें बुद्धि से काम करना पड़ता है उसे सुनना नहीं चाहता है और आज कल के गीत भी ऐसे ही हैं जिनमें दिमाग न लगाना पड़े जो सीधे-सीधे यूँ ही पहुँच जाएं। जिसमें दिमाग़ लगाना पड़े, जिनमें ज्ञान की बात मिलती हो वो गीत ही खत्म हो गए हैं। सब गीत हैं, सीधे-सीधे, सपाट-सपाट, गँवारपने के। इसलिए आदमी में बुद्धि नहीं रही। रसीले, स्वादभरे गीत सुन रहा है। और उसे उनमें स्वाद आ रहा है तो समझना कि यह लड़का, यह आदमी बर्बाद हो गया।

यदि तुम चाहते हो कि हम समझदार बनें, ज्ञानी बनें तो स्वाद के गीत और बात छोड़ देना जिनमें दिमाग़ लगाना पड़े, वही बात सीखना, वही गीत सुनना। ब्रह्मा का जीवन बर्बाद हो गया। बुद्धि खत्म हो गई। फिर रिषियों के कहने पर ब्रह्माजी ने शरीर छोड़ दिया और दूसरा शरीर धारण किया। अर्थात दूसरी बात, दूसरा तरीका पकड़ा। जिसमें दिमाग़ लगाना पड़ता है वही बात करो, वही बात सुनो और जिसमें दिमाग़ नहीं लगाना पड़ता वो बात छोड़ दो, वो गति छोड़ दो।

Saturday, September 20, 2008

वैराग्य : विरक्ति ही शांति का मूल है

बलि अत्यंत पराक्रमी था। उसने रावण जैसे बलवान शासक को भी पराजित किया था। लेकिन इंद्र ने बलि को परास्त कर उसकी समस्त संपत्ति उससे छीन ली थी। शुक्राचार्य ने स्वर्ग-विजय कें लिए बलि से एक यज्ञ कराया और इसके परिणामस्वरूप बलि ने वरदान प्राप्त करके देवताओं को समर में हरा दिया। उसने तीनों लोक जीत लिए। वह दीर्घ काल तक सुखों का भोग करता रहा। लेकिन सांसारिक भोगों एवं शक्तिशाली होने के अहंकार से उसके पुण्य क्षीण होने लगे। बलि का मन अशांत रहने लगा। एक दिन वह अपने पिता विरोचन के पास पहुंचा। विरोचन ने बलि से पूछा, "अब तो तुम्हारा मन पूर्ण शांति एवं संतोष से परिपूर्ण होगा। अब तो तुम्हारी कोई आकांक्षा शेष नहीं है?'' बलि ने पिता के प्रश्न का जबाब देते हुए कहा, "पिताश्री, मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि जिन भोगों और सांसारिक वस्तुओं को मैं सुख का कारण समझता था, उन्होंने ही मेरे मन को पग-पग पर अशांत बना रखा है। मैं अभी तक भ्रम के संसार में जी रहा था। इसलिए मुझे ऐसी कोई साधना बताइए, जिससे दुःख और सुख का अंत हो जाए।'' विरोचन ने बलि से कहा, "वत्स, धर्मशास्त्रों के अनुसार, भोग से अशांति बढ़ती है और उनसे चिर विरक्ति होने पर ही मन को असली शांति मिलती है। विरक्ति और संतोष ही प्रभु-कृपा प्राप्ति एवं मोक्ष का साधन है।'' बलि ने पिता का उपदेश सुना, तो उसका विवेक जाग उठा। उसने राजपाट त्यागकर स्वयं को मोक्ष साधना में लगा दिया।

प्रस्तुति : धनश्याम गिरि http://www.rudragiriji.net

वैराग्य : इस्लाम की खानकाही व्यवस्था

हुजूर साहब की मृत्यु के लगभग २०० वर्षों के बाद सूफी धर्म व दर्शन प्रकाश में आया। सूफी वह है जिसे किसी चीज की तलब तंग नहीं करती और न किसी चीज की जरूरत और उसका अभाव उसे तंग करता है। सूफ़ियों ने खुदा को हर वस्तु पर प्रमुखता दी है।
सूफियों के नजदीक (वैराग्य) खानकाही व्यवस्था का जो महत्व है, उससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता। खानकाहें इसी के प्रशिक्षण के लिए होती थीं।
हजरत मुहम्मद के समय एक चबूतरा बना हुआ था। इसे सुफ्फ़ कहते थे। यह स्थान उन लोगों के लिए मुख्य था, जो साधना में लगे रहते, शिक्षण प्रशिक्षण में व्यस्त रहते और जिनका काम यह था, कि सीखें और सिखाएं। ये लोग दुनिया के मामलों से अलग होकर आत्म संयम और मनोनिग्रह के कार्य करते और उसी की दीक्षा लेते। सादा जीवन और उच्च विचार वाले ये लोग, प्रेम का संदेश प्रसारित करने वाले ये उद्गम स्रोत, ही सूफियों की खानकाह का रूप धारण करने का कारण बने हैं।
सुफ्फ़ और खानकाह में कितनी एकरूपता है इसका उल्लेख सुहारावर्दी ने इस प्रकार किया है, कि "वह हर समय अपनी खानकाह में रहते थे और उसकी ख़बरगीरी करते थे।''
खानकाह सूफ़ियों की ऐसी जगह है जहाँ बूढ़े, जवान सभी होते हैं। बूढ़ों को ख़ुदा की खद के लिए एकान्त चाहिए होता है, जो खानकाह में मिल जाता है। जवान के स्वभाव से एकान्तवास अगर मेल नहीं खाता तो वहाँ रहने से उसे ऐसा प्रशिक्षण मिल जाता है कि धीरे धीरे वह भी एकान्तवास में रुचि लेने लगता है।
डॉ. रामपूजन तिवारी के अनुसार "खनकाह में रहने वाली तीन श्रेणियाँ थीं।
१. अहले खिदमत, २. अहले सोहबत और ३. अहले खलवत।
इसमें पहली श्रेणी के लोग वहाँ सेवा धर्म का पालन करते और इस प्रकार से जीवन यापन करते कि वे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होते रहें और दूसरी श्रेणी के योग्य बन जाएं। जो नयी उम्र के हैं उनके लिए सोहबत की आवश्यकता है और बूढ़ों के लिए ख़लवत ;एकांत सेवनद्ध की आवश्यकता समझी जाती है।
उत्तरी भारत में अजमेर से लेकर बंगाल तक खानकाहों की पूरी एक पट्टी विकसित हुई जहाँ से धर्म प्रचारक, सूफ़ी प्रशिक्षण प्राप्त कर मीलों तक फैल जाते, छोटी छोटी ख़ानकाहें बनाते और अपने उत्तम चरित्र का विकास करते।
कालांतर में ये ख़ानकाहें अपनी आत्मा खोती चली गयीं। अब तो ये खानकाहें किसी पीर की समाधियाँ हैं या ऐश परस्ती के अड्डे। अब अन्य हर वस्तु की तरह उनमें भी विधिवत ह्रास आ चुका है
प्रस्तुति : डॉ. शगुफ्ता नियाज+ प्राध्यापिका, वीमेन्स कालिज, ए.एम.यू. अलीगढ़

Tuesday, September 16, 2008

वैराग्य का अर्थ

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

सच्चिदानन्दघन वह परब्रह्म सब प्रकार से पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण ही है क्योंकि उस पूर्ण (परब्रह्म) से ही यह पूर्ण उत्पन्न हुआ है। पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण बच रहता है। परब्रह्म की पूर्णता से ही जगत पूर्ण है। जगत में जो भी देखने सुनने में आ रहा है, वह उसी सर्वशक्तिमान, सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वाधिपति प्रभु से ओतप्रोत है। स्वयं मनुष्य भी परमात्मा से ओत प्रोत है, उसकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, आत्मा सभी में उसी परमात्मा का वास है, जो सर्वथा पूर्ण है। अतः मनुष्य प्रकृति से ही सर्वथा परिपूर्ण है। सत्‌ चित्‌ आनन्द से लबालब भरा हुआ। परंतु अविद्या के आवरण ने उसके ज्ञान को ढक रखा है। वह यह सत्य भूल गया है कि वह पूर्ण है। उसे पूर्ण होने के लिए जगत के अन्य पदार्थों या व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं। यही विस्मरण उसे भौतिक जगत में मोह, ममता, मात्सर्य के बंधन में जकड़ देता है। ऐसा, जगत के व्यक्ति, वस्तु, पदार्थों के मोह में जकड़ा जीव, भगवान के सम्मुख कैसे
हो सकता है? नहीं, ऐसा कैसे सम्भव है, कि व्यक्ति अपनी परछाई और सूर्य को एक साथ देख सके।

"अरे मूरख! यह समझ कि परछाई का अस्तित्व सूर्य से है। तो सत्य तो सूर्य ही है, जगत तो वही है जो परमात्मा के अंश मात्र से उपजा है। जब वह अंश इतना भासता है, आकर्षित करता है तो सोच उस असीम में कितना आनन्द और आकर्षण होगा। पर वह मिलेगा तो तब, जब तू, जगत परछाई का पीछा छोड़कर परमात्मा सूर्य के सन्मुख होगा। तभी तो हद को छोड़, बेहद का नजारा होगा। तुच्छता को त्याग विराटत्व को पाना है, तो संसार से तोबा कर अर्थात्‌ वैराग्य ले। ऐसा मनीषियों ने कहा है।

वैराग्य अर्थात्‌ न 'वैर' हो न 'राग' हो। संसार में अनासक्त, निर्लेप, न्यारे रहकर बने रहना वैराग्य है। वैराग्य के लिए घर-बार, पति-पत्नि किसी को भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ हैं वहीं वैराग्य ले लें। यह शास्त्रों में बताए गए 'साधन चतुष्टय' अर्थात्‌ भगवत्‌ प्राप्ति के चार साधनों में से एक महत्वपूर्ण साधन है। भक्तिमार्ग पर भी जब भगवद् प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है तो संसार दीखता ही नहीं सिर्फ प्रभु रह जाते हैं- "जा को लागे प्र्रेम रोग, और सूझे संसार। ता को यूँ कर जानिए, झूठा, गप्पी, कपटी और मक्कार॥'' वैराग्यवान ही ज्ञान, भक्ति तथा मुक्ति का सच्चा अधिकारी होता है। क्योंकि कोई चाहे कितना धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, अच्छे कुल-परिवार से युक्त हो भगवान इससे सन्तुष्ट नहीं होते। भगवान तो जब बुलाते हैं, तो ये सब छुड़ाकर ले जाते हैं। चाहे जीते जी, चाहे मृत्योपरान्त-

"कंकड़ चुनि-चुनि महल बनाया, लोग कहें घर मेरा। ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा॥

महल बनाया किला चुनाया, खेलन को सब खेला। चलने की जब बेला आई, सब तजि चला अकेला॥

'' ये दुनियाँ ही दर्शन का मेला है परंतु इसे समझने वाले अलबेले ग्राही कहाँ मिलते हैं? समझ नहीं आती, कि अनासक्त हुए बिना, हम अपने तन, मन, धन, समय सबका दुरुपयोग करते हैं- सबको अपने और अपने वालों की इच्छा पूर्ति के लिए भस्मीभूत किए जा रहे हैंऋ जबकि इनका असली अधिकारी तो है परमात्मा। ऐसे में मनुष्य की दशा शोचनीय है। समय रहते करने वाला काम नहीं कर रहा, बाद में पछताएगा। अन्त में सिर्फ भाव ही साथ जाऐंगे। वैराग्य तो लोगों को होता हैऋ जब श्मशान में अपने किसी 'प्रियजन' को फूँकने ;अन्तिम क्रिया करनेद्ध जाते हैं। कहेंगे "जीवन का क्या भरोसा' 'कुछ भी साथ नहीं जाता' आदि-२''। पर फिर कुछ मोबाइल बजेंगे, कुछ काम याद आऐंगे और निकल पड़ेंगे अन्धी दौड़ पर। यह मसानी वैराग्य है, आया और गया।

वैराग्य हो तो शुकदेव मुनि जैसा, संसार के मोह में फँसने के भय से माँ के गर्भ से पन्द्रह वर्षों तक बाहर ही नहीं आए। फिर जन्म लेते ही चल पड़े सन्यास लेकर जंगल की ओर। पिता व्यास मुनि पुकारते ही रह गए। ऐसे शुकदेव मुनि जिन्हें आता देखने पर भी स्नान करती स्त्रियों को अपना तन ढकने की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी, क्योंकि उनकी दृष्टि शरीर पर जाती ही नहीं थी। वह तो सर्वआत्मा भाव में ही जिए। काम, आसक्ति, ममता, मोह आदि विकारों से सर्वथा मुक्त थे वे। ऐसा हो पाना तो आज थोड़ा कठिन है, परन्तु कबीर का उदाहरण समझा जा सकता है। जुलाहे थे उनके लिए सूत, कपड़ा, करघा, वे स्वयं तथा ग्राहक सभी राम थे। एक पल भी राम को ना भूले, ऐसा व्रत था उनका। पहला ग्राहक जो दे जाए वही लेकर संतुष्ट रहते। भगवान आए थे जो दे गए, प्रसाद है। तन, मन, धन सब शुद्ध हो, तब ही भगवान अपनाते हैं।

संसार में जब आसक्ति हो तो...... वहाँ ऐसा नहीं कि... प्रेम और सुख नहीं। प्रेम और सुख है तभी तो मन वहाँ जाता है। प्रेम और सुख के साथ-साथ घृणा और दुःख भी है यह एक च्ंबांहम है। जिसे चुना तो प्रेम-सुख और घृणा-दुःख दोनों को ही ग्रहण करना पड़ेगा। परन्तु वैराग्य अनासक्ति है, तो वहाँ सिर्फ प्रेम है और सुख है। घृणा और दुःख को कोई स्थान नहीं। क्योंकि यहाँ आशाऐं, आकांक्षाऐं, मोह, ममता नहीं सिर्फ दिव्य प्रेम है। जो सिर्फ देना जानता है, सेवा करना जानता है, निष्काम भाव से। सूक्ष्म वासनाऐं भी ज्ञान और भक्ति में रोड़े अटकाती हैं। ये है मान, बड़ाई, ईर्ष्या। वैराग्य के नाम पर वेश लेकर साधु सन्यासी बन जाने वाले भी फिर कहीं न कहीं किसी मठ-घाट से बंध जाते हैं। यही नहीं वहाँ भी एक तरह का संसार है ही जहाँ मान, बड़ाई, ईर्ष्या का साम्राज्य है-

"कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान, बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह॥''

यह सूक्ष्म वासनाऐं उसके ज्ञान भक्ति को दीमक की तरह चाट जाती हैं-

"मोटी माया सब तजें, झीनी तजी न जाए। मान बड़ाई ईर्ष्या, सबको झीनी खाए॥''

अंत में फिर वहीं आते हैं कि मनुष्य तो पूर्ण है। उसे पूर्णता को प्राप्त करने के लिए अन्य किसी व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ की आवश्यकता नहींऋ बस वह प्रार्थना करे कि हे नाथ, एक पल भी आपको ना भूलूँ। सच्चा साधक कहता है-

"हे दीनबन्धु, दीनानाथ! म्हारी विनती सुनो।

म्हारे तो शत्रु घृणाजी, भक्ति करन न देत।

काम, क्रोध, मद, लोभ, म्हारी सुमति को हर लेत।

म्हारी विनती सुनो। ''

प्रस्तुति : श्रीमती कविता उपाध्याय

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Sunday, September 14, 2008

भागवत कथा अंक 14

जैसे पानी से लहर पैदा होती है, पर अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर दिखता है।

मैं' कौन हूँ, इसको जानने के लिए, पहले जानो कि मुझे क्या करना है?

अपने-अपने कर्त्तव्य को पकड़ लें तो भगवान तो दूर हैं ही नहीं।

जाकी रही भावना जैसी.......... प्रभु मूरती देखी तिन तैसी।

......... जब भी बताने वालों ने बताया कि ये परमात्मा जगत रूप में कैसे दिखा? जैसे चिंगारी और आग क्या अलग-अलग हैं? नहीं! फिर भी आग चिंगारी के रूप में दिखती है। जैसे-जल और लहर दो हैं क्या? नहीं हैं न! फिर लहर क्यूँ दिखती हैं। ऐसे ही, "है परमात्मा ही परमात्मा'' फिर भी जगत दीखता है। जैसे पानी से लहर पैदा होती है पर अलग दिखती है। जैसे आग से चिंगारी पैदा होती है फिर भी अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर अलग दिखता है लेकिन कुछ अलग नहीं हुआ। पानी ही पानी है, आग ही आग है, कुछ अलग नहीं है। ऐसे ही परमात्मा ही परमात्मा है, जगत अलग नहीं है।............. विस्त्रत के लिए देखें.......http://bhagawat-katha.blogspot.com/

Saturday, September 13, 2008

सप्ताह का विचार

जो प्रसन्नता से सब कुछ प्रभु के हाथों में छोड़ देते हैं ,वो हर चीज़ ,हर बात में प्रभु का हाथ देखते हैं ।
क्योंकि आस्था तब आती है जब सब संदेह नष्ट हो जाते हैं ।

Monday, September 8, 2008

शुल्ब सूत्र (भारत में पाइथेगोरियन त्रिक)

ज्यामिति का उद्भव भारत में यज्ञ की बेदी का निर्माण करने के संदर्भ में हुआ था। शुल्बसूत्र भारत की प्राचीन रचनाएँ हैं - जो यज्ञ के लिए वेदियों के निर्माण का वर्णन करती हैं। मूल रूप से ये ज्यामितीय रचनाओं पर केंद्रित हैं। शुल्ब का अर्थ हैं नापना अथवा नापने की क्रिया। ये शुल्बसूत्र अपने लेखकों के नाम से जाने जाते हैं। इनमें प्रमुख हैं -१। बौधायन का शुल्बसूत्र २। आपस्तम्ब का शुल्बसूत्र३. कात्यायन का शुल्बसूत्र

बौधायन का शुल्बसूत्र : - इनमें बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय १२०० से ८०० ई। पू. माना गया है। बौधायन निम्न त्रिकों का उल्लेख करते हैं-

अपने एक सूत्र में बौधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-

दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जुः पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोती.

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग-अलग बनाती हैं। यहीं तो पाइथेगोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथेगोरस के पहले से थी। दरअसल इस प्रमेय को बौधायन-पाइथेगोरस प्रमेय कहा जाना चाहिए। प्राचीन भारतीय गणित की चर्चा बिना शुल्ब सूत्रों के अधूरी रहेगी। शुल्ब सूत्र वैदिक समय (बण्१५०० दृ बण् २००ठब्द्ध के साहित्य से सम्बन्ध रखते हैं। शुल्ब सूत्र जैसा कि नाम से स्पष्ट है नापने के नियम। यह बड़ा ही रोमांचित है कि लम्बाई रस्सी से नापी जाती थी इसलिए शुल्ब शब्द को रस्सी के लिए प्रयोग होने लगा। सूत्रों का प्रादुर्भाव वेदों से है। वे क्राइस्ट के जन्म से कम से कम आठ नौ शताब्दी पूर्व ज्ञात थे। बोधायन प्रथम ज्यामितिज्ञ हुए, जिन्होंने ज्यामिति ज्ञान को वैदिक यज्ञों की वेदियों के निर्माण के संदर्भ में विकसित किया था। उन्होंने शुल्ब सूत्रों के माध्यम से रेखा, पृष्ठ, मापन यन्त्र तथा मात्रक का अन्वेषण किया था। इनके द्वारा रचित शुल्ब साहित्य में मापन यन्त्र को रज्जु भी कहा गया है तथा कई स्थानों पर रेखा को रज्जु कहा गया है। ज्यामितिक साहित्य मूलतः ऋग्वेद से उत्पन्न हुआ है जिसके अनुसार अग्नि के तीन स्थान होते हैं- वृत्ताकार वेदी में गार्हपत्य, वर्गाकार में अंह्यान्या तथा अर्धवृत्ताकार में दक्षिणाग्नि। तीनों वेदियों में से प्रत्येक का क्षेत्रफल समान होता है। अतः वृत्त वर्ग एवं कर्णी वर्ग का ज्ञान भारत में ऋग्वेद काल में था। इन वेदियों के निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न ज्यामितीय क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। जैसे किसी सरल रेखा पर वर्ग का निर्माण, वर्ग के कोणों एवं भुजाओं का स्पर्च्च करते हुए वृत्तों का निर्माण, वृत्त का दो गुणा करना। इस हेतु इनका मान ज्ञात होना जरूरी था।बोधायन ने तथा कथित पायथागोरस प्रमेय को स्वतन्त्र रुप से खोजा था जिसके अनुसार किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पद्यथक-पद्यथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है। (बो। सू० १-४८)शुल्ब सूत्रों में पाइथागोरस प्रमेय का वर्णन तो है किन्तु उसकी व्युत्पत्ति तथा सद्धि करके न ही दिखाया गया है जब कि यूक्लिड एलिमेंट में इसे सिद्ध करके बताया गया है । पाइथागोरस प्रमेय का पुनः नामकरण करके शुल्ब प्रमेय रखना चाहिये।प्राचीन भारतीय गणितज्ञों को च तथा झ्२ जैसे नम्बरों का अच्छा ज्ञान था। काफी सीमा तक शुद्ध इनके मान बिना प्रमाणित किये हुए शुल्ब सूत्रों में वर्णित है। बौधायन तथा अपस्तम्भ सूत्रों का सम्बन्ध कृद्यण यजुर्वेद से है। अपस्तम्भ सूत्र प्रथम का वर्णन करते है जो मूलतः ग्रीक होने के कारण डियोफेन्टीन कहलाते है। ग्रीक में खोज बहुत बाद में हुई अतः इनकी पहचान मूल रुप से शुल्बसूत्रों से ज्यादा उपयुक्त होगी।आजकल वैदिक काल में जिन खोजों की चर्चा है उनमें गिनती लिखने की दच्चमूल विधि तथा शून्य की खोज प्रमुख है। यजुर्वेद संहिता, तेतरीय संहिता, वज्जसनेइ संहिता में बड़ी संख्या को दशमलब विधि में दस की घात जैसे १०१९ के रुप में दर्शाया गया है। गिनती लिखने में अंक की स्थिति को क्रम से लिखा गया है । २७ को सप्तविंच्चती अर्थात बीस और सात लिखा जाता था। संख्या को दस की पूर्ण संख्या के नजदीकी संख्या से घटाकर भी लिखा जाता था जैसे ९७२ को अठाइस कम एक हजार कहा जाता था। इस संदर्भ में नोबेल पुरुस्कार विजेता भौतिकी विद््‌ अबदुस सलाम को उद्त करना उचित होगा जिन्होंने बताया कि भारतीय अविष्कार किस तरह एच्चिया और यूरोप में फैले।करीब बारह सौ वर्ष पूर्व अब्दुल्ला अल मनसूर ने अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगोष्ठी का उद्घाटन, अपनी नई राजधानी बगदाद की स्थापना के समय किया। इस संगोष्ठी में ग्रीक, नेस्टोरियन बैजेन्टाइन, यहूदी तथा हिन्दू विद्वानों को आमंत्रित किया गया। अरब देच्च में इस पहली अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी से इस्लाम से जुड़ी विज्ञान का विधिवत प्रादुर्भाव हुआ। इस संगोष्ठी का मुख्य विषय खगोल विज्ञान था। अलमनसूर उस समय उपलब्ध खगोलीय तालिकाओं से अधिक शुद्ध तालिकाओं में रुचि रखता था। उसने पृथ्वी की अधिक सही एवं शुद्ध परिधि ज्ञात करने का आदेच्च उस संगोष्ठी में दिया। किसी को अहसास नहीं था कि उस समय एक ऐसा पेपर पढ़ा गया जिसने गणितीय सोच को एक नई दिच्चा दी। यह पेपर एक हिन्दु खगोलवेत्ता कनकाह ;ज्ञंदांीद्ध ने हिन्दू अंक तथा गिनती के बारे में पढ़ा जो उस समय तक भारत से बाहर ज्ञात नहीं थे।

Sunday, September 7, 2008

जिस पर हमें गर्व है.

जब कभी भारतीय विज्ञान की चर्चा होती है तो वैज्ञानिक दृष्टि से सामान्य व्यक्तियों द्वारा जो एक विषय अनिवार्य रुप से चर्चा में लाया जाता है, वह है हमारे पूर्वजों द्वारा स्वर्णिम युग में वैज्ञानिक प्रगति। वैज्ञानिक प्रगति के स्वर्णिम इतिहास में जो उदाहरण दिये जाते हैं उनमें महाभारत, रामायण तथा अनेक पुराणों का उल्लेख किया जाता है जिसमें गाइडेड मिसाइल, विच्च्व को समाप्त करने की क्षमता रखने वाले हथियार, लेजर जैसी किरणें, जीवन दायिनी दवाईयाँ, ब्लैक होल तथा प्रकृति के कई अन्य रहस्यों का उद्घाटन किया है जिससे आज के वैज्ञानिक ललित लेखन भी शर्मा जायें। यदि उस समय की इतनी वैज्ञानिक चर्चा है तो तर्क दिया जाता है कि उस समय उच्च तकनीकी का वातावरण अवच्च्य रहा होगा जो बिना उच्च स्तरीय विज्ञान के संभव नहीं है। हमारे प्राचीन पूर्वज अवच्च्य ही वैज्ञानिक क्षेत्र में अग्रणीय रहे होंगे। हमें मिथ (पौराणिक आख्यानों से) चाहे वे कितने ही उत्तेजक हों, प्रेरणादायक लगते हैं। प्राचीन ग्रीक में भी एलियाद और ओडसी जैसे महाग्रन्थ हैं लेकिन उनमें यूक्लिड, पाइथागोरस तथा आर्कमिडिज का लेखन भी है जो वैज्ञानिक दृष्टि से ज्यादा रुचिकर तथा थीसियस अचिली के साहसिक कार्य से ज्यादा सांसारिक भी है।यूक्लिड एलिमेन्ट में बौद्धिक अभ्यास की तरह कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं तथा प्रमेयों की चर्चा है जो कि तर्क पर आधारित है। पाइथागोरस प्रमेय कहती है कि समकोण त्रिभुज में कर्ण का वर्ग त्रिभुज की शेष दो भुजाओं के वर्ग के योगफल के बराबर होता है। आर्कमिडिज का काम प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन के साथ जीवन के व्यवहारिक पक्ष में मदद करता है तथा इसे और सुधारने का मार्ग प्रच्चस्त करता है। इसी तरह हम चर्चा करेंगे, अपने प्राचीन भारतीयों के विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में योगदान की जो प्रमाणों पर आधारित है।http://www.rudragiriji.net
प्रस्तुति : डा. श्रीराम वर्मा

Saturday, September 6, 2008

Starting Mobile bloging

Wan to start mobile blog. Rudra Sandesh