आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, August 7, 2008

जिज्ञासा और समाधान

इस माह में पाठकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर

जिज्ञासाः- महाराजश्री, हमारे अंदर सुनने की इच्छा क्यों नहीं होती है? -रमेश सिंह, नई दिल्ली

समाधानः- बहुत सुन्दर प्रश्न किया है। रमेश जी! होता यह है, कि मनुष्य मन के चलाने से चलता है। मन टूटने को तैयार नहीं होता है। मन अपने स्वाद, इच्छा और अनुकूलता के अनुरूप चलना चाहता है। मन सत्य की ओर न चलकर असत्य की ओर दौड़कर जीवित और बलिष्ठ रहने की मिथ्या आकांक्षा (तृष्णा) पालते रहने का आदी हो गया है। मन की इसी आकांक्षा के वशीभूत मनुष्य सुनने को तैयार नहीं होता है।

जिज्ञासाः- महाराज जी भाई संजयजी ने बताया कि आप अपने दीक्षित शिष्यों को श्रावक शब्द से सम्बोधन करते हैं। श्रावक तो जैनियों में होते हैं। आध्यात्मिकता में श्रावक शब्द का क्या महत्व है? -शालिनी अरोरा, नॉएडा

समाधान- कोई शब्द कहीं प्रयोग होता है, इसका अर्थ यह तो नहीं कि वह शब्द अपनी प्रासंगिकता खो देगा। असल में हमारे ही कुछ तथाकथित गुरुओं ने अधकचरे ज्ञान के आधार पर दुकानें सजा ली हैं। ऐसा ही सनातन धर्म के अंधकार युग में हुआ था। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में भी हमें कुछ तथाकथित लोग उस अंधी सुरंग में अनजाने ही धकेल रहे हैं। इस बात से क्या अंतर पड़ता है कि किसने किसके लिए किस शब्द का प्रयोग किया? हमें तो सत्य की ओर चलना है। प्रश्न यह उठता है कि सत्य क्या है? क्या गारंटी है, कि सामने वाला जिसे सत्य बता रहा है, वही सत्य है? याकि वह भी आपको अपने मन के अनुकूल ले जाने का प्रयास कर रहा है। आपने सुना तो होगा कि पानी पीयो छानकर, गुरु बनाओ जानकर। यह जानने का जो शब्द यहाँ प्रयोग हुआ है, उसकी पहली कड़ी श्रवण करना है। और श्रवण करना कोई आसान चीज नहीं है। साधक बनना आसान है लेकिन श्रावक बनना कठिन है। स्वभावतः मनुष्य का मन तृष्णा पालने का आदी हो गया है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्य, गुरु भी मन के मानने से ही बनाने लगा है।

जिज्ञासाः- महाराज जी आप जिसे मन कह रहे हैं वह अंतरात्मा की आवाज भी तो हो सकती है।

-खुशबू चौधरी, अलीगढ

समाधान :- हो सकती है। लेकिन हमेशा हो ऐसा सम्भव नहीं है। जानने के चरण होते हैं। अक्सर हम जानना उसको कह देते हैं जो हमारे मन के अनुकूल होता है। हमारे बहुत से पूर्वाग्रह भी इसमें सहयोग करते हैं। जानने के चरणों को समझें- पहले हम किसी बात को सुनने की इच्छा विकसित करें। इसके लिए समस्त पूर्वाग्रहों का निषेध करना होता है। -फिर उन बातों को सुनें - फिर सुनी बातों पर मनन करें - फिर विवेक विकसित करें- क्या इस बात को सभी शास्त्रों ने स्वीकार किया है? क्या संत इन बातों को स्वीकार करते है? क्या हमारे माता पिता तथा गुरु भी इनको स्वीकार करते हैं। अगर उत्तर हाँ में मिले तो पकड़ लें और अगर कहीं से भी प्रतिकूल मिले तो छोड़ दो। http://www.rudragiriji.net/

No comments: