आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Thursday, August 14, 2008

वास्तविक ज्ञान .........

यह विषय जितना सरल है उतना ही गूढ है। संसार में ज्ञान का अर्थ है- 'जानना'। लोग विद्यालयों में दी जाने वाली विद्या को ही ज्ञान मानने की भूल कर बैठते हैं। 'रुद्र संदेश' जैसी आध्यात्मिक मूल्यों को समर्पित पत्रिका में स्थान पाने वाला विषय विद्यार्जन नहीं बल्कि इससे कहीं गूढ़ आत्म-ज्ञान से सम्बन्धित है। विद्या हमें व्यवहार जगत में तो मदद दे सकती है पर अपने मन, बुद्धि, अंहकार को समझने तथा उनसे पार जाने, उनका उल्लंघन कर जाने की क्षमता 'ज्ञान' से ही प्राप्त हो सकती है। शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति के आठ अंतरंग साधन बताए गए हैं- विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्ष्य तथा समाधान ), मुमुक्षुता, श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा तत्तपदार्थ संशोधन। संसार में हर मनुष्य दुःखी है क्योंकि 'ज्ञान' नहीं है। अज्ञान ही हमें हमारे सत्‌-चित्‌ आनन्द स्वरूप से दूर ढकेल देता है। यह नहीं कि यह आनन्द ज्ञान होने से मिलता है वरन्‌ हम तो है हीं आनन्द रूप, बस अज्ञान का आवरण हमें उसे देखने नहीं देता।
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन, अमर, सहज सुखदासी।''
जिस प्रकार अंधकार को दूर करने के लिए प्रकाश करना पड़ता है। उसी प्रकार अज्ञान को दूर करने के लिए गुरु के चरणों में बैठ कर ज्ञानार्जन करना पड़ता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थ से ऊँचा उठ जाता है। उसका लक्ष्य कर्म तथा पदार्थ न रह कर, चिन्मय तत्व ही उसका लक्ष्य हो जाता है। जब अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश फैलता है तो साधक बरबस ही कह उठता है।
"भीतर है सखा, तेरा सखा, मन लगा के देख, अन्तःकरण में ज्ञान की ज्योति जला के देख।''
ज्ञान हमें इस जगत्‌ का दृष्टा, साक्षी बना देता है। हम यह जान जाते हैं कि हम इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं। ज्ञानी जन सदा अपनी विवेक बुद्धि को जाग्रत रखते हैं तथा संसार की बातों की उनमें कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। वह जानता है कि जो कुछ भी हो रहा है उसी परमात्मा की लीला है, उसी की सत्ता से, शक्ति से है। स्वामी रामसुख दास जी ने एक स्थान पर कहा है, कि "वास्तव में ज्ञान स्वरूप का नहीं होता, अपितु संसार का होता हैं। संसार का ज्ञान होते ही संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।'' मन बुद्धि को एकाग्र करने के उपरान्त वह उनसे उपराम हो जाता है तथा शेष रह जाती है असीम शान्ति तथा परमानन्द। आत्मज्ञान कितना गूढ़ विषय है और कितना महत्वपूर्ण यह कठोपनिषद में वर्णित नचिकेता तथा यमराज के संवाद से पता चलता है। नचिकेता के द्वारा आत्मज्ञान का वरदान मांगे जाने पर यमराज ने उन्हें यूँ ही तत्वज्ञान नहीं दिया वरन्‌ पहले उनकी परीक्षा लेकर यह सुनिश्चित किया कि वे इस ज्ञान के अधिकारी हैं भी या नहीं। पहले उन्हें इस ज्ञान के बड़े दुरूह होने की बात कह कर डराया फिर उन्हें संसार का साम्राज्य देने तथा स्वर्ग के सुखों को मनचाहे काल तक भोगने का प्रलोभन भी दिया। परन्तु नचिकेता भी आत्मज्ञान के महत्व को भली भाँति जानते थे। वह कुशाग्र बुद्धि वाले, चतुर, दृढ़निश्चयी, श्रद्धावान तथा वैराग्यवान थे। उन्होंने स्वयं को सुपात्र सिद्ध करके तत्व ज्ञान को प्राप्त किया जो कि अमृत तत्व को देने वाला है तथा जिसको जानने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। श्रीमद्भगवद् गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने तीन प्रकार के योगों का वर्णन किया है- कर्म योग, ज्ञान योग तथा भक्ति योग। परन्तु उन्होंने हर जगह एक योग के फल रूप में अन्य दो योग बताए। अतः हम कह सकते हैं कि ज्ञानी के कर्मयोग तथा भक्तियोग स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। कहा भी है भक्ति तथा ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं
"भक्ति सूनी ज्ञान बिना और ज्ञान है रूखा भक्ति बिना।''
भगवान को भी ज्ञानी भक्त प्रिय है। वो कहते हैं कि ज्ञानी भक्त स्वयं भगवद्स्वरूप है। कारण कि ज्ञानी होने के कारण उस भक्त का संसार से मोह सर्वथा नष्ट हो जाता है और वह स्वयं को ब्रह्म जानने लगता है। वह ब्रह्म जिससे शोक, मोह-चिन्ता, आसक्ति, राग-द्वेष, मान-अपमान, जीवन-मरण, सुख-दुःख, क्लेष आदि है ही नहीं। इन सबसे ऊपर उठा हुआ ज्ञानी भक्त परमपद को प्राप्त होता है। वह जीवन में ही मुक्त है। इन तथ्यों को व्यापक रूप में समझने के उद्देश्य से हमने विभिन्न धर्मों के विचारकों के विचार भी इस अंक में प्रस्तुत किए हैं.............

1 comment:

Anonymous said...

वह कुशाग्र बुद्धि वाले, चतुर, दृढ़निश्चयी, श्रद्धावान तथा वैराग्यवान थे।
thanx 4 giving me an idea about how 2 b worthy of real knowledge....
but what do u mean by VAIRAGYAVAAN?