आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Wednesday, July 30, 2008

दीप जलाकर रखना


मेल से प्राप्त (साभार) एक कविता

अपने दिल को पत्थर का बना कर रखना ,

हर चोट के निशान को सजा कर रखना ।

उड़ना हवा में खुल कर लेकिन ,

अपने कदमों को ज़मी से मिला कर रखना ।

छाव में माना सुकून मिलता है बहुत ,

फिर भी धूप में खुद को जला कर रखना ।

उम्रभर साथ तो रिश्ते नहीं रहते हैं ,

यादों में हर किसी को जिन्दा रखना ।

वक्त के साथ चलते-चलते , खो ना जाना ,

खुद को दुनिया से छिपा कर रखना ।

रातभर जाग कर रोना चाहो जो कभी ,

अपने चेहरे को दोस्तों से छिपा कर रखना ।

तुफानो को कब तक रोक सकोगे तुम ,

कश्ती और मांझी का याद पता रखना ।

हर कहीं जिन्दगी एक सी ही होती हैं ,

अपने ज़ख्मों को अपनो को बता कर रखना ।

मन्दिरो में ही मिलते हो भगवान जरुरी नहीं ,

हर किसी से रिश्ता बना कर रखना ।

मरना जीना बस में कहाँ है अपने ,

हर पल में जिन्दगी का लुफ्त उठाये रखना ।

दर्द कभी आखरी नहीं होता ,

अपनी आँखों में अश्को को बचा कर रखना ।

सूरज तो रोज ही आता है मगर ,

अपने दिलो में ' दीप ' को जला कर रखना। http://www.rudragiriji.net/


it

1 comment:

Anonymous said...

marmik hai!