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Friday, July 4, 2008

एक कहानी ( जिदगी जियें और उस पार की व्यवस्था भी करें)


एक ऐसा राज्य था जहॉ राजवंश परम्परा नहीं थी, बल्कि हर पॉच वर्षों के बाद राजा पद के प्रार्थना पत्र आमंत्रित किए जाते थे। फिर उन उम्मीदवारों में से एक को चुनकर पॉच वर्ष के लिए राजा बना दिया जाता था। परन्तु ऐसा नहीं था कि राजा बनने के लिए ज्यादा सेख्या में लोग आवेदन करते हों।
ऐसा क्यों? वह इसलिए कि वहॉ का नियम था कि पॉच वर्षों के शासन के उपरांत राजा को राज्य की सीमा पर बहती विशाल नदी के उस पार जंगली जानवरों से भरे निर्जन वन में अकेला छोड़ दिया जाता था, वहॉ वह निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। अधिकतर वृद्ध जन ही राजा बनने के लिए यह सोचकर आवेदन करते थे कि अब बचु कुचे दिन राजा बनकर आनन्दपूर्वक जीलें, फिर तो मरना है ही। परन्तु एक बार उस राज्य में एक सन्त अपने कुछ शिष्यों के साथ आए। संयोग से उसी समय राजा पद हेतु आवेदन किए जाने की मुनादी हो रही थी। एक नौजवान शिष्य ने जब पूरी बात सुनी तो बोला, ''मैं आवेदन करना चाहता हूँ । '' इस पर आस पास खड़े नागरिकों ने आश्चर्यचकित होकर कहा कि, ''नवयुवक इस अवस्था में ही जीवन से इतना उब गए कि शीघ्र मरना चाहते हो।'' इस पर उस शिष्य ने अपने गुरु की तरफ देखते हुए कहा कि, ''मेरे गुरु ने मुझे मनुष्य जीवन का महत्व ओर उद्देश्य बता रखा है। मैं जानता हूँ कि यह कितना बहुमूल्य है। और मैं धन वैभव के भोग का सुख लेने हेतु नहीं अपितु अपने गुरु का संदेश जन जन तक पहुंचाने हेतु इस राज्य का राजा बनना चाहता हूँ । अंततः हुआ यह कि उसे राजा चुन लिया गया। वह शिष्य राजकाज का काम भली भॉंति करता रहा, पर साथ ही उसने एक ऐसा काम किया जो उसके पूर्ववर्ती किसी राजा ने नहीं किया था। उसने नदी के उस पार जंगल के कुछ हिस्से को साफ करवाकर वहॉं वैसा ही एक राजमहल तथा छोटा सा नगर बनवाया तथा उसके चारों तरफ ऊंची दीवार बनवाकर उसे सुरक्षित करवा लिया। फिर वहॉ कुछ नागरिकों को बसाया। दास दासियों की व्यवस्था भी की। देखते देखते नदी के उस पार भी एक छोटा सा रमणीक नगर बस गया। पॉच वर्षों का अपना कार्यकाल पूरा करने के उपरांत वह शिष्य बड़ी शांति तथा प्रसन्नता के साथ नदी के उस पार जाकर राज करने लगा। विदा होते समय अपने आखिरी भाषण में अपने गुरु का ज्ञान सेदेश प्रजा को देते हुए कहा कि,
''यह मनुष्य जीवन अनमोल है, हमें इसी जीवन में मृत्यु के पश्चात मुक्ति की तैयारी करनी है। वह मृत्यु नहीं महा प्रयाण होगा, जिसके बाद हम जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो जाएंगे। हमें मृत्यु के उपरांत स्वर्ग, नरक, मोक्ष या मुक्ति, क्या मिलेगा यह हमारे जीवन में किए गए कर्मों तथा हमारे मन के भावों पर निर्भर है। अतः हमें ऐसा ध्यान रखकर ही कर्म करने चाहिए कि मृत्यु नजदीक ही है। हमे मृत्यु के बाद की तैयारी ठीक उसी तरह करनी चाहिए जैसी इन पॉंच वर्षों में मैंने नदी के उस पार जाने के लिए की है। मैं अब निडर होकर प्रसन्नता से उस पार जा रहा हूँ न कि डरते और रोते हुए। जीवन में यदि मृत्यु को स्मरण रखा जाए तो हमारे मन, कर्म तथा वचन शुध पवित्र बने रहेंगे। और हमारा परलोक सुधर जाएगा, जैसे मैं उस पार जाकर कष्ट नहीं भोगूंगा वरन राज करूंगा।'' शिष्य ने गुरु के ज्ञान को आत्मसात तो किया ही था। साथ ही उसने उदाहरण प्रस्तुत करके उसे समस्त प्रजा के समक्ष कितना सुबोधगम्य ढंग से प्रस्तु किया। धन्य है वह शिष्य ओर धन्य है उसका गुरु।

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