अंतः चतुष्टय का प्रमुख अंग है चित्त। महाराजजी कहते हैं, चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। चित्त पर अंकित छाप ही जीव को विभिन्न योनियों में भटकाती है। अलग अलग सम्प्रदाय अलग अलग तरीके से पूजा के तरीके अपनाते हैं। अगर गम्भीरता से चिंतन करें तो पाते हैं कि विभिन्न नामकरण होते के बाद भी सभी यह अवश्य स्वीकारते हैं कि चित्त पर अंकित छाप के अनुसार ही जीव के कर्मों के लेखे जोखे का फल मिलता है। कयामत के दिन नेकी और बदी के फरिश्ते जिस बही को लेकर बैठेंगे क्या वह हमारा चित्त ही है? पतांजलि ने भी चित्त वृत्ति निरोध को ही योग कहा है।
Thursday, November 26, 2009
Tuesday, November 24, 2009
पलकों का परदा नहीं है तो मन्दिर नहीं जाऐं।
प्रातः काल उठि के रघुनाथा।
मात, पिता, गुरू नावहिं माथा॥
इस प्रकार शौच व स्नान करके शुद्ध पवित्र रहना चाहिए। फिर पंचमहायज्ञ किए बिना भोजन करे तो कृमि भोजन नामक निकृष्ट नर्क में कीड़ा बनना पड़ता है, परीक्षित। इसलिए माता, पिता, गुरू की सेवा करने के पश्चात जहाँ भोजन करे वहाँ नहा धोकर शुद्ध होकर या फिर घुटने तक पाँव धोए, कुहनी तक हाथ धोकर, कुल्ला करें, मुँह धोकर पोंछ कर पालती मारकर पूरव या उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। मुसलमान भाई हो तो काबे की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए। भोजन करें सिर बांध करके नहीं करें, भजन करे तो सिर खुला नहीं रख कर करें। भजन करें मंदिर में जाए तो सिर बाँधकर जाए। आँखों को पलकों से ढक कर जाऐं। आँखों पर पलकों का परदा नहीं है तो मन्दिर नहीं जाऐं। सिर को ढक कर जाए नहीं तो मन्दिर नहीं जाए। बेशर्मों के लिए बेपर्दाओं के लिए मन्दिर नहीं बने।
हरे रामा/ हरे रामा/ रामा रामा हरे हरे।
हरे कृष्णा/ हरे कृष्णा/ कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥
Monday, November 16, 2009
किसको कौन सा नरक?
Sunday, November 15, 2009
सात लोक नीचे हैं, सात लोक ऊपर।
Monday, November 9, 2009
चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है।
बोले महाराज, बात तो आप बड़े गजब की कह रहे हैं। महाराज, कल्याण का रास्ता बताऐं। भरत जी बोले कि कल्याण का रास्ता न भीतर है, न बाहर ही, ये तो मन से होकर जाता है। मन से ही बंधन है, जब यह बाहर भटकता है और मन से ही कल्याण है, जब वो आत्मा में लय होता है। ये संसार एक भवाटवी है। 'भव' माने 'तृष्णा' और 'अटवी' माने 'जंगल'। वासना-तृष्णा का जंगल है, राजन, जिसमें दिल और चित्त भटक गया है। आत्मा बंधन और मुक्ति दोनों से परे है। मन से ही बंधन है, मन से ही मुक्ति है। विषयों में फंसा हुआ चित्त ही बंधन है और निर्विषय होकर आत्मा में लय हुआ तो मुक्ति है। देख, इसकी ग्यारह वृत्तियाँ होती हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक ग्यारहवाँ अहंकार। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं। मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण, लेन-देन ये पांच कर्मेन्द्रियों के विषय। मैं- मेरा, तू-तेरा ये अहंकार के विषय। ये सब इनका क्षेत्रज्ञ आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। ये चित्त में से ही पैदा होती है। जैसे-मकड़ी में से जाल पैदा होता है, और मकड़ी को ही लटका लेता है। जैसे पानी में से काई पैदा होती है और पानी को ही ढक लेती है। सूरज से कोहरा पैदा होता है और सूरज को ही ढक लेता है। ऐसे ही चित्त में से ही अविद्या उत्पन्न होती है और चित्त को ही आवृत्त कर देती है। समझना ढंग से, अच्छा। फिर यही संसार के बंधन में डालने वाली अवक्षिप्त कर्मों में प्रवृत्ति रहती है। इसकी ये वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं- जागृत स्वप्न में प्रकट होती हैं, सुषुप्ति में छिप जाती है, रहती तो हैं। यानि तीनों अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ जो विशु( चिन्मात्र है न, वो इनको साक्षी भाव से देखता रहता है। इसलिए साक्षी चेतन केवलो निर्मलश्च। इस भाव में अपने चित्त को लय करने का प्रयास कर।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। वेद पुराण सन्त सम्मत वद॥