Sunday, May 31, 2009
खुदा भी प्यार करने वालो के साथ रहते हैं
Saturday, May 30, 2009
'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है
सब इंद्रियों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर कर, प्राणों को सहस्रार में पहुंचाकर ऊंकार का उच्चारण ही ध्यान की सम्यक विधि है। प्रणव शब्द का अनवरत उच्चारण व मन का उस शब्द में तादात्म्यीकरण मनुष्य को अद्भुत शांति व सुख के साम्राज्य में ले जा सकता है। आज यह तो सर्वविदित ही है कि 'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है, उसकी क्षमताओं का पुनर्नवीनीकरण होता है और कार्यक्षमता का वर्धन होता है। गीता हमें मानवता का पाइ भी पढ़ाती है। आल समूचे विश्व में जाति व सम्प्रदायगत वैमनस्य का जहर व्याप्त है। सर्वत्र घृणा, अहंकार, नफरत, स्वार्थपरता का तांडव है ऐसे में 'गीता' का यह उद्धोष मानव-मन को सचेत कर देता है -
Friday, May 15, 2009
मानव का सर्वोच्च रखवाला, चिंता करने वाला स्वयं परमेश्वर है।
जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि इस पृथ्वी पर हिंसा एवं आतंकवाद का कारण मनुष्य का पाप है। इस सन्दर्भ में बाइबिल धर्मग्रंथ के उत्पत्ति ;प्रथम पुस्तकद्ध के चौथे सोपान में कैन एवं हाबिल नामक दो भाइयों की कहानी है जिसमें क्रोध, स्वार्थ, ईर्ष्या स्वरूप कैन अपने छोटे भाई की हत्या कर देता है और परमेश्वर जब उससे कहते हैं कि - तेरा भाई कहां है? तो वह कहता है कि "क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूं।'' इस घटना में मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार, सम्बन्ध एवं ईश्वर का मनुष्य के साथ व्यवहार की सुन्दर झलक मिलती है। वास्तव में मानव की यही मनोवृत्ति कि "क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूं'' आज संसार में हिंसा एवं आतंकवाद का कारण है। स्वार्थ, ईर्ष्या को जन्म देता है और ईर्ष्या मनुष्य को यह सीख देती है कि वह अपने भाई, पड़ौसी, सहधर्मी का रखवाला नहीं है। महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हम इस संसार में एक दूसरे के रखवाले हैं। परमेश्वर ने हमें यह दायित्व सोंपा है और यही परमेश्वर की श्रेष्ठ आज्ञा है। मानव का सर्वोच्च रखवाला, चिंता करने वाला स्वयं परमेश्वर है। इसका प्रमाण हिंसा और आतंकवादी गतिविधियों के मध्य स्वयं प्रभु यीशु में देहधारी होकर कलवरी क्रूस से उन्होंने दिया, जो सम्पूर्ण मानव को पाप से छुटकारा है। प्रिय मित्रो, पवित्र ग्रंथ बाइबिल में हिंसा एवं आतंकवाद का कोई स्थान नहीं है। इसके स्थान पर क्षमा, ईश्वरीय प्रेम तथा आपसी सम्बन्धों की मधुरता/मिठास को सराहा गया है, जो हिंसा एवं आतंकवाद के लिए उचित एवं न्यायोचित जवाब है। प्रार्थना एवं आशीर्वाद के साथ.......................
Tuesday, May 12, 2009
आतंकवाद, हिंसा और युद्ध किसी भी रूप में हो नुकसान हमेशा मानव जीवन का ही हुआ है।
सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद एवं हिंसा तथा युद्ध की विभीषिका से रूबरू है। इस महाराक्षस ने मानव अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। हिंसक हथियार इतने प्रभावकारी बन चुके हैं कि उनका उपयोग इस पृथ्वी की सतह से जीवन को हमेशा के लिए समाप्त कर सकता है। हिंसा और आतंकवाद का अपना इतिहास रहा है और विश्व के प्रमुख धर्मों में इनको किसी न किसी रूप में स्थान दिया गया है तथा उचित एवं अनुचित युद्ध की संज्ञा दी गई है। आतंकवाद, हिंसा और युद्ध किसी भी रूप में हो नुकसान हमेशा मानव जीवन का ही हुआ है। इनके कारण परमेश्वर की सर्वोत्तम रचना को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। मसाही कलीसिया का इतिहास भी युद्ध एवं आतंकवाद से अछूता नहीं रहा जिसका प्रमाण रहे हैं जो दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक में हुए और सम्पूर्ण यूरोप इसमें झुलस गया। निर्दोषों के खून से सम्पूर्ण यूरोप लाल हो गया। यहां पर एक प्रश्न मानवीय दृष्टिकोण से उठता है कि, क्या मसीही कलीसिया का निर्माण निर्दोषों के रक्त पर हुआ है? मसीही दृष्टिकोण से हिंसा, आतंकवाद का कारण मनुष्य का पाप है। अर्थात ईश्वर की आज्ञाओं के विरुद्ध मानव का विद्रोह तथा परमेश्वर की इच्छा की अवहेलना कर जब मनुष्य अपनी इच्छा का दास बन जाता है तो वह स्वार्थ एवं अहं के मार्ग पर चलने लगता है। जो भी उसके इस मार्ग में बाधा डालता है उसको मार्ग से हटाने हेतु मनुष्य हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि जब प्रभु यीशु ने लोगों को यह शिक्षा दी कि वे पाप का मार्ग त्याग कर ईश्वर की क्षमा को स्वीकार करें और ईश्वर के राज्य में प्रवेश करें तो मानव पाप ने, जो उसके स्वार्थ का परिणाम था, इसे स्वीकार न किया और प्रभु यीशु मसीह को क्रूस पर लटका दिया।यह विश्व के इतिहास की सबसे क्रूरतम एवं प्रायोजित आतंकवाद की घटना है। मसीह का क्रूूस पर लटकाया जाना हिंसा और आतंकवाद का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता। इसके विपरीत प्रभु यीशु का क्रूस पर से यह संबोधन कि "हे पिता इन्हें माफ कर क्योंकि यह नहीं जानते कि क्या करते हैं।'' ईश्वरीय दया, क्षमा एवं प्रेम का सवोत्कृष्ट उदाहरण है। शेष कल ......
Thursday, May 7, 2009
शैतान की पुष्टि के लिए किया गया युद्ध धर्मयुद्ध नहीं वरन अधर्म का साथ होता है।
एक बड़ा रोचक और मार्मिक मामला इस दौरान हमारे समक्ष आया। हमने अपने एक मुस्लिम विद्वान साथी से इस विषय पर कुछ लिखने को कहा तो वह बोले, संजय जी बड़ा सेंसिटिव इश्यू है। अगर हम कठमुल्लों की भाषा बोलते हैं तो हमारे अंदर जेहाद होने लगता है और अंदर की बात लिखते हैं तो बाहर से जेहादी हमले का खतरा है। उपरोक्त दो पंक्तियां इतना कुछ कह देती हैं कि पूरी थीसिस लिख जाती है। यही सच भी है। धर्म के ठेकेदारों नं अपनी दुकान चलाने की गरज से इस शब्द का बेजा इस्तेमाल करने में कोई कोताही नहीं की है। धार्मिक संगठन चाहे किसी भी धर्म का हो वहां तक ठीक है जहां तक वह अपने अपने को सुधारने के लिए अपने से युद्ध करता है लेकिन जब वह अवनी स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरे के नुकसान को अमादा हो तो वह धर्म कहां? वह तो अधर्म है। अर्जुन को कृष्ण ने किसी का राज छीनने के लिए युद्ध करने को नहीं कहा। राम ने रावण का वैभव या राज छीनने की गरज से युद्ध नहीं किया। बुद्ध ने हिंसा करने के लिए युद्ध कला नहीं सिखाई, सिख गुरुओं ने किसी की सत्ता छीनने के लिए युद्ध की आज्ञा नहीं दी और मुहम्मद साहब ने भी मानवता को नष्ट करने के लिए या उसे नुकसान पहुंचाने की गरज से युद्ध को फर्ज करार नहीं दिया था। यह तो हमारा स्वार्थ है, इंसान पर छाई शैतानियत है जो धर्मयुद्ध के नाम पर बेगुनाहों के कत्लेआम करा रही है। महाराजजी कहते हैं कि हर व्यक्ति वैराग्य से पूर्व धर्मयुद्ध करता रहता है। यह युद्ध कहीं बाहर नहीं, किसी दूसरे से नहीं, स्वयं के अंदर छिपे शैतान से है। वही अर्जुन है जो इस आंतरिक युद्ध में अंदर बैठे शैतान को पराजित कर देता है। सदगुरु सारथी के रूप में सदैव उसके साथ है। जो बिना सारथी के धर्मयुद्ध के नाम पर दूसरों की हत्या करे या नुकसान पहुंचाए वह जाने अनजाने अंदर के शैतान द्वारा संचालित होता है। और शैतान की पुष्टि के लिए किया गया युद्ध धर्मयुद्ध नहीं वरन अधर्म का साथ होता है। आज पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में है। देश के देश बर्बाद हो रहे हैं। मानवता सिसक रही है और शैतान मानवता का लहू पीकर मस्त होकर अट्टहास कर रहा है। इसी संवेदनशील बिन्दु पर हमने कुछ चुने हुए विद्वानों के विचारों को ठीक उसी रूप में प्रकाशित करने का प्रयास किया है जैसे हमें मिले हैं।...
Wednesday, May 6, 2009
धर्म युद्ध के मायने ......
भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को युद्ध करने के लिए न केवल प्रेरित किया वरन तब तक उसका पीछा न छोड़ा तब तक कि उसने अपने गांडीव की प्रतंचा न चढ़ा ली। भगवान श्री राम ने भी रावण को युद्ध में परास्त कर विभीषण का राजतिलक किया और सीता को वापस प्राप्त किया। इससे पूर्व भी भगवान शिव द्वारा अनेकानेक युद्धों में अपने गणों को भेजने के प्रमाण मिलते हैं। भारत में ही बुद्ध और जैन मतों के प्रवर्तकों ने किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध किया। बुद्ध ने चीन और जापान में वहां के निवासियों को समुराई और कुंगफू जैसी युद्धोपयोगी कलाओं को सिखाया। सिंख धर्म के अंतिम गुरु ने भी सिखों को युद्ध कौशल में न केवल पारंगत किया वरन युद्ध के लिए प्रेरित किया और उनको यु(ोपयोगी परिधान धारण कराए। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने तो स्वयं ही अनेक युद्धों में भाग लिया और जेहाद करने की आज्ञा दी। जेहाद को खुदा का पैगाम बताया और फर्ज में शुमार किया। आज इन्हीं आधारों को लेकर दुनिया में हिंसा का बोलबाला हो रहा है। धर्मयुद्ध के नाम पर स्वार्थी लोग अपने हैवानी मंसूबों को पूरा करने के लिए आतंकवाद फैला रहे हैं। स्थिति इतनी बदतर हो चुकी है कि समझदार लोग यह जानते हुए भी कि यह सब गलत हो रहा है चुप्पी साधे बैठे हैं। क्रमशः कल भी ......
Sunday, May 3, 2009
सारे जग का गुरू आधार, निराकार हो या साकार
वाणी जब कठोर हो जाए, दम्भ-द्वेष-पाखण्ड छुड़ाए॥
शिष्य पे गुरू की करुणा भारी, भक्त सदा रहे आभारी॥
जापर कृपा रुद्र की होई, सो उसको भय नाहिं कोई॥
मोह माया के फंद काट दें, मन के पंच विकार छाँट दें।
सारे जग का गुरू आधार, निराकार हो या साकार ॥
Saturday, May 2, 2009
गुरु ज्ञान जो हृदय में आए, ...............
गुरु चरणन में प्रीत घनेरी, समझो माया उसकी चेरी॥
रुद्राज्ञा में जो जन चलते, कलियुग उनके पास न फटके॥
दिव्य रुद्र का ध्यान जो धरते, चमत्कार नित देखा करते॥
चरणन में जो शीश नवाए, परम पद का मारग पाए॥
Friday, May 1, 2009
भवसागर में गुरु ही नैया
भवसागर में गुरु ही नैया, भ्राता, पिता, मित्र और भैया॥
अन्धकार में दीप रुद्र हैं, जग के नाते सभी क्षुद्र हैं॥
मन का दीपक, प्रेम की बाती, भाव है तेल करें आराती॥
सो साधक हो दीन पुकारे, धाय रुद्र जी कण्ठ लगावें॥
ज्ञान, ध्यान, औ योग बतायें, भक्ति बिराग मर्म समझायें।
भागवत ज्ञान की गंग बहाऐं, हर-हर कर श्रावक नहाऐं॥