सोचना पडेगा कि अगर मेरे साथ ऐसा हो तो कैसा हो? मन यहाँ भी खतम नहीं होता, यहाँ भी कपड़े नहीं उतारता। हमें मर जाने दो, हमें तो बस यह फूल चाहिए। फिर क्या करोगे? लोग कहते हैं कि हमें वो चाहते हैं जो हम अपने लिए चाहते हैं, वो दूसरे के लिए भी करें। ये तो समझदार आदमी की बात है। हम अपने लिए बुरा नहीं चाहते तो दूसरे के लिए बुरा नहीं सोचते। कॉमनसैन्स की बात होती है।
अब कॉमन सैन्स रहा कहाँ? आदमी कहता है कि मैं चाहे मर जाऊँ, लेकिन ये चाहिए। मन दूसरे को मार सकता है, और मर जाने के लिए तैयार है, दूसरों को मारने के लिए तैयार है। उन लोगों के लिए गुरू का कोई मतलब नहीं। और जब मन मर जाने को तैयार है, दूसरों को मारने के लिए तैयार हो, खुद को मारने के लिए तैयार हो, उन लोगों के लिए जिन्दगी का मक्सद ही खतम हो गया। मन में फूल को लेकर एक कवर आया, कपड़ा आया, एक दीवार बनी। उसके पहले विचार कहां थे? उससे पहले मन कहां था? वहाँ जाने के लिए बहुत बड़ी बुद्धि चाहिए, बहुत बड़ा तप चाहिए, बहुत बड़ी तैयारी चाहिए।
इसीलिए तो गुरू के पास जाते हैं, लेकिन तप ने के लिए नहीं जाते हैं। इसीलिए इन महापुरुषों ने गुरूपूर्णिमा अषाढ़ की रखी कि पहले तप चाहिए, पहले आग चाहिए। कैसी आग? ऐसी आग नहीं जो तुम्हें जलाऐ या किसी का घर जलाऐ। ऐसी आग, जिससे पानी बरसे। ऐसी आग जिससे ठण्डी हवाएं चलें। ऐसी आग जिससे प्रकृति पूरे शवाब पर और सुन्दर दिखाई दे। ऐसी आग, ऐसी चिन्गारी। उसको तप कहते हैं। वो महापुरूष धन्य हैं, वो धन्य है, जिसके अन्दर इतनी आग होती है। जिसके अन्दर इतनी तपिस होती है, जिसके अन्दर इतनी हीट होती है, ओजस होती है, ऊर्जा होती है, शक्ति होती है, पावर होती है, वो इस संसार में धरती के लिए वरदान होते हैं। और सच कहा जाऐ तो भगवान से भी बडे+ होते हैं, ऐसे महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ोगे तो तुम्हें सुधरने की जरूरत नहीं है।
क्या करोगे? कैसे सुधर सकते हो? तुम न सुधरने को जानते हो और न बिगड़ने को जानते हो। अगर तुम सुधरने को जानते हो तो बिगड़ते ही नहीं। अगर तुम बिगड़ते ही रहे हो तो न तुम बिगाड़ को जानते हो और न सुधार को ही जानते हो।