आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Saturday, April 23, 2011

शब्द की विस्मृति याद है...........

याद रखना! शब्द का याद रहना याद नहीं है। शब्द की विस्मृति याद है। जब तक हमारे दिमांग में शब्द बन रहे हैं, तब तक कपड़े हैं। जब तक हमारे दिमांग में विचार बन रहे हैं, तब तक कपड़े हैं और तुम शब्दों को और विचारों को उतार दोगे, तो गुरु तो तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है। ये कपड़े हैं, गुरु थोड़े ही है, ये तो ठवकल है। गुरु तो भीतर है। भगवान कहते हैं कि सुदामा सद्गुरु सबके हृदय में बसा हुआ है।
ये तो ठवकल है, ये तो धोखा भी हो सकता है, गुरु तो अमर होता है, साश्वत होता है। गुरु का मतलब होता है, ऐसी चीज जो तुम्हें अपनी तरफ खींच ले। जिसे हतंअपजंजपवद कहते हैं, जिसे गुरुत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं, जिस में ज्यादा शक्ति होती है, जो चीज ज्यादा ताकतवर होती है, जो चीज ज्यादा वजनदार होती है, उसी चीज को खींच लेती है। जब तुम नियम से रहोगे, सुनोगे तो गुरु के पर्व पर जाओ। तब गुरु के कहते ही तुम कपड़े उतरे हुए मेरे पास आओ तो मैं तुम्हें वहीं दुंगा जो तुम्हारे कल्याण के लिए है, जो तुम्हें चाहिए, फिर तुम्हें किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी।
एक दिन गोपियाँ डर रही हैं कपड़े के बिना, पर हम डरते हैं कि अपनी बात नहीं कही तो हम गुरु की सुन नहीं पाऐंगे। गुरु नहीं समझ पाऐगा कि मेरा चेला बहुुत पढ़ा लिखा विद्वान था। हम अपने आप को दिखाना चाहते हैं वो भी अपने आपको दिखाना चाहती हैं, अपनी हकीकत को सुनाना चाहती हैं। जब तक हम आपको अपने दिल से जीवन का कल्याण होगा उसे छुपाऐंगे तो कुछ नहीं मिलेगा। और जब सोचेंगे कि इनको हमारी गलती दिख गयी है तो दुनियाँ भरके शब्द जोडेंगे, दुनियाँ भर की बात जोड़ोगे। तुम सीख क्या रहे हो, तुम तो गुरु के गुरु बन रहे हो, पापा के पापा बन रहे हो, मम्मी की मम्मी बन रहे हो, बड़ो के बड़े बन रहे हो।
जब तक बड़े बन रहे हो, मत आना, घर ही रहो। और जब बड़ों की मानना सीख लो तब सन्त शरण में आना।
"संत मिलन को जाइए, तजि माया अभिमान।
ज्यों-ज्यों पग आगे बढ़े, कोटिन्ह यज्ञ समान॥
माया अभिमान त्यागने का मतलब ये थोड़े ही है कि अपनी मकान, दुकान, जमीन, जायदाद, गुरु के नाम कर दो। ऐसा नहीं है! मन में जो तुम्हारे में भरा हुआ है कि "मैं', 'मेरा', 'मैं बढ़िया हूँ', ये सारी बात छोड़कर जाना। ये है आषाढ़ की गर्मी, कपड़े उतारने पडेंगे, न सुन्दर हो, न पढ़ा लिखा हो, न विद्वान हो, न जमींदार हो, न नम्बरदार हो, ये सब उतार सकते हो तो ही जाना।

1 comment:

Anonymous said...

बहुत ही सार्थक