आधयात्मिक मूल्यों के लिए समर्पित सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका.

Monday, June 23, 2008

एक कहानी दिल से निकली

मैं कमरे में पड़ा अपने को कोस रहा था कि देखो इस इक्कीसवीं सदी में मुझ जैसे मूरख हैं। मुझे रहरहकर अपनी पत्नी पर गुस्सा भी आ रहा था कि उसने क्या सोचकर इस बाबाजी को मेरे पल्ले बाँध दिया था। मैंने फिर झांककर कमरे में देखा बाबा तो ठाठ से मेरे आलीशान पलंग पर सो रहा था और मैं सोच सोच कर कुढ़े जा रहा हूँ।ै कितना उल्लास था मन में जब सोनम ने मुझे यह बताया कि वह एक ऐसे संत को भी जानती है जो किसी से कुछ चाहता ही नहीं। न किसी के धन से प्रयोजन न किसी के वैभव से। वह तो मस्त अपनी साधना में रत रहते हैं। बाबा की तारीफ करते करते वह अघाती न थी। मेरी मान्यता सदैव से इन बाबाओं के बारे में अच्छी नहीं रही। मैं जानता था कि ये केवल वे वंचित तबके के लोग हैं जिनको कुछ मिला नहीं, और ये पाने के लिए प्रयास भी नहीं करते। अरे इस जगत में ऐसा कौन जिसे लक्ष्मी आकर्षित न करे। लेकिन सोनम की बातों और चारों ओर फैली बाबा की शौहरत ने मेरे अहम को चुनौती सी दे डाली थी। बेमन से मैं एक बार बाबा के दर्शन को भी गया। बाबा के चेहरे का आभामण्डल वास्तव में देखते ही बनता था। गाँव के बाहर टूटे से झोंपड़े में पड़े बाबा के जब मैंने दर्शन किए ओर उनके प्रवचनों को सुना तो मुझे अपना दर्प टूटता सा लगा था। बाबा तो वास्तव में त्यागी हैं। कोई चाहना नहीं। मेरी इंपोर्टेड गाड़ी की तरफ वे तो तनिक भी आकर्षित न हुए थे, और मेरी आशा के विपरीत विदाई के पल उन्होंने मुझसे या किसी अन्य से कुछ चाहा भी नहीं। उनका त्यागी स्वभाव देखकर मुझे अपना कद बौना लगने लगा था। मेरी आस्था इस बाबा में बढ़ती जा रही थी। कुछ अद्रश्य शक्ति तो जरूर थी जो बरबरस ही आकर्षित करती थी। मुझे विश्वास हो चला था कि बाबा मुझसे कुछ भी लेने वाले तो हैं नहीं, तो क्यों न उनसे कुछ आग्रह कर लिया जाय। एक दिन मैंने बाबा से आग्रह किया कि बाबा क्या आप मेरी गाड़ी में मेरे घर तक चलेंगे। बाबा तुरंत गाड़ी में सवार। मुझे झटका सा लगा। अरे यह तो तन कर मेरी ही सीट पर बैठ गए। मैं तो सोचता था कि बाबा कहेंगे, ÷÷बच्चा हमें इन गाड़ियों से क्या लेना हम तो मस्त फकीर ऐसे ही भले''। घर आकर मैंने उनसे पूछा कि वे क्या खाना पसंद करेंगे, उन्होंने किसी भी चीज को खाने से इंकार न किया। क्या बाबा एसी में साऐंगे? बाबा बोले क्यों नहीं। मैंने अपना सबसे कीमती बैडरूम शिष्टाचार या अपने वैभव को दिखाने के लिए उन्हें दिखाया था, लेकिन यह तो हद है कि बाबा उसी पर पौढ़ गए। आज पंद्रह दिन बीत गए बाबा मस्त हाईक्लास जीवन जी रहा है। मैं कमा रहा हूँ बाबा मौज मार रहा है। मैं पहले ही कहता था लेकिन जाने क्या मति मारी गयी जो इस बाबा को घर ले आया। इसने तो मेरे घर, गाड़ी सब पर कब्जा सा कर लिया है। अगली सुबह मैं झुंझलाया सा बैठा था कि बाबा ने पूछ ही लिया, ÷दीप कुछ परेशान दिखते हो। मैंने कहा बाबा वैसे तो कोई बात नहीं लेकिन यह बताओ जब तुम्हे सुविधा मिलीं तो तुम भी उनका मजा लेने मे नहीं चूक रहे हो तो तुममें और मुझमें क्या फर्क है? बाबा बोले बेटा फर्क तो वहीं बताऐंगे जहाँ से तुम्हारे मन में बीज पड़ा है। मैं और बाबा अपनी मोटर से उसी कुटिया पर पहुँचे। बाबा ने कहा अब गाड़ी यहीं छोड़ देते हैं कुछ दूर पैदल चलकर तुम्हें अंतर बताएंगे। बाबा पैदल पैदल आगे बढ़ते जाते और मैं उनके पीछे। नदी किनारे आकर मैंने अपनी यात्रा रोकी और कहा कि बाबा अब तो बताओ। बाबा ने कहा क्या जल्दी है नदी पार करते हैं फिर इस विषय पर वार्ता करेंगे। अब मेरा सब्र जवाब दे रहा था। मैंने कहा बाबा रात हो चली है। मेरा महल, मेरी गाड़ी, मेरे बच्चे सब तो वहाँ हैं मुझे लौटकर जाना है। बाबा मुस्कराए बस यही फर्क है। तुमने महल, गाड़ी, वैभव को अंदर बना रखा है और मैं उसके अंदर रहकर आया हूँ।

1 comment:

Anonymous said...

Bahut Khoob,
sahi hi hai sabhi suder cheezen dil se nikalti hain aur jo asundar hai wo dimag mein hi upajta hai. To Prabhu dil ko dimag par raaj karne do kyonki bhakti dil se hi ho sakti hai