मनुष्य को 'मन' के रूप में एक उपकरण मिला। इसे लगाकर हर काम एकाग्रता से भली प्रकार किया जा सकता है। पर इस मन ( उपकरण )में इतने अन्य बल जोड़ दिए कि उसमें अज+ब सा, बेकाबू कर देने वाला, हिला कर रख देने वाला कम्पन होता। ये बल हैं- पाँच विकार ;काम, क्रोध, मद, लोभ, मोहद्ध तरह-तरह के भय और वासनाऐं। यह सब और हमारे संस्कार सही-गलत का निर्णय करने के व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक मापदण्ड सब मिल कर द्वन्द्व या खींचतान की स्थिति को जन्म देते हैं। जो उपकरण हमें दिया गया था इस्तेमाल करने के लिए वही हमें चलाने लगता है, हमारा प्रयोग करने लगता है, द्वन्द्व में डाल देता है। यदि हम मन को एक उपकरण मान कर आवश्यकतानुसार उसे कर्मों में या विचार करने हेतु इस्तेमाल करें फिर छोड़ दें अर्थात् उसमें उठने वाली इच्छा, कामना व वासना की तरंगों में न बहें तो ही हम मन के पार जा सकते हैं। पर यह मन बड़ा दुष्ट है- दोस्त बन कर ठगता है जो भूप था उसे भिक्षुक बना देता है। ऐसा खेल दिखाता है कि सच पर परदा पड़ जाता है आदमी बिलकुल भ्रमित हो जाता है और मृगतृष्णा के जल की भाँति संसार में सुख तलाशने चलता है जहाँ रेत के सिवा कुछ नहीं, सब मिथ्या है। ऐसे प्यासे की प्यास कैसे बुझेगी। "मन का दास, सदा उदास।'' कहते हैं "मन की ही सृष्टि है।'' एकदम सत्य है- 'मन' से ही 'माना' जाता है। संसार में देखें तो सब कुछ माना हुआ है जैसे क-ख। सिर्फ शरीर को जन्म देने से स्वयं को उसके ÷माता-पिता' मान लिया, उसे 'बेटा-बेटी' मान लिया, विवाह किया तो 'पति-पत्नी' मान लिया। सारे नाते रिश्ते माने हुए हैं, नहीं तो जिन सन्तों ने कई जन्म देखे, वे बताते हैं कि आज जो पत्नी है पूर्वजन्म में माँ थी, आज तो पुत्र हैं पहले दादा था आदि। तब वो सच 'मान' लिया था, आज यह सच ÷मान' लिया। और तो और किस परिस्थिति में सुखी होना है, किस में दुःखी ये भी 'मान' लिया। जन्म पर खुशी और मृत्यु पर दुःख 'मनाने' लगे। लाभ को सुख का हानि को दुःख का विषय 'मान' लिया। प्रारब्ध का फल है-हर परिस्थिति पर सुख व दुःख तो मन के माने हैं। पर संसार की कोई परिस्थिति ऐसी नहीं जिसमें मनुष्य का कल्याण न हो सके क्योंकि हर परिस्थिति में हैं ही "प्रियतम परमात्मा''। ऐसा जानकर जो सुख दुःख में सम रहे वही सच्चा योगी है। भगवान कहते हैं "समत्वं योग उच्यते।'' (गीता २/४८)